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________________ (३) ७० ग्रन्थोंका सम्पादन, जिनमें ३५ प्रकाशित भी हो चुके हैं, (४) ३००० से अधिक विशिष्ट लेख लिखना, जो ३०० पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं, (५) 'राजस्थान भारती' आदि अनेक पत्रिकाओंका कुशल सम्पादन करना, (६) वैदुष्यपूर्ण प्रमाणोंके आधारपर राजस्थानी भाषाको साहित्यिक मान्यता दिलवाना, (७) ऐतिहासिक प्रबल प्रमाणोंको लेखबद्ध करके, जो 'लोकवाणी' पत्रिकामें प्रकाशित हुए थे, 'आबू' को राजस्थान में ही पुनः बनवाये रखना और (८) वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी और कलकत्ता विश्वविद्यालय, कलकत्ता आदिकी संगोष्ठियोंमें शोधपूर्ण विशिष्ट निबन्ध प्रस्तुत करना — आदि तथ्योंके आधारपर स्पष्ट हैं कि नाहटाजी अनोखी प्रतिभा के धनी हैं । यही कारण है कि आपकी गणना भारतवर्ष के विशिष्टतम विद्वानोंमें की जाती है। आपकी सेवाएँ सदा संस्मरणीय रहेंगी । सन् १९६५की बात है वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में उसके तत्कालीन कुलपति महामहिम श्री विश्वनाथदासजी, राज्यपाल उत्तर प्रदेशने एक विराट् तन्त्र सम्मेलन करवानेका सुझाव दिया था । फलतः उक्त विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अधिकारियोंने एक मीटिंग की, जिसमें विश्वविद्यालयके सभी विभागों के अध्यक्षोंके अतिरिक्त अनेक स्थानीय विद्वान् भी उपस्थित हुए थे । पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात् तन्त्रसम्मेलनकी रूप रेखा बनायी गयी, विशिष्ट तान्त्रिक विद्वानोंको आमन्त्रित करनेके लिए उनके नाम और पते नोट किये गये, तथा सम्मेलनकी मिति निश्चित की गयी । इसी अवसरपर मैंने सोचा कि इस सम्मेलन में जैन तन्त्र साहित्य के मर्मज्ञ विद्वानों को भी आमन्त्रित किया जाना चाहिए। तुरन्त ही मैंने अपने इस विचारको अधिकारियोंके समक्ष रखा, जिसे उन्होंने बिना किसी आपत्तिके स्वीकार कर लिया । जब प्रस्तुत विषयके अधिकारी विद्वानोंके नाम पूछे गये तो मैंने श्री अगरचन्द्रजी नाहटा और डा० श्रीकस्तूरचन्द्रजी कासलीवाल के नाम व पते नोट करा दिये । मैंने नाहटा और कासलीवालजीको विश्वविद्यालयकी ओरसे पत्र लिखे। दोनोंने शीघ्र ही उत्तर दिया कि वे तन्त्र शास्त्रके मर्मज्ञ नहीं हैं, फिर भी जैन तन्त्र- साहित्य विषयक निबन्ध तैयार करके ठीक समयपर उपस्थित हो जायँगे। दोनों विद्वान् ठीक समयपर सम्मेलन में उपस्थित हुए और उन्होंने निबन्ध पाठके अतिरिक्त जैनतन्त्र विषयक शताधिक जैन ग्रन्थोंकी पाण्डलिपियों और चार्टों को प्रदर्शित करके सभी श्रोताओं को प्रभावित किया । मुझे विश्वास नहीं था कि नाहटाजी तन्त्र सम्मेलन में जैनतन्त्र - साहित्य पर ऐसा सुन्दर विस्तृत निबन्ध प्रस्तुत करके जैनेतर तान्त्रिक विद्वानोंको प्रभावित कर सकेंगे । पर प्रतिभाके धनी नाहटाजीने उस अवसरपर ऐसा चमत्कार दिखलाया कि स्थानीय तान्त्रिक विद्वान् अभी तक उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा किया करते हैं । १. दोनों निबन्ध यथाशीघ्र विश्वविद्यालय की ओरसे प्रकाशित होनेवाले हैं । १९८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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