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________________ संलग्न अनेक कमरोंमें चारों ओर पुस्तकोंका विपुल भंडार भरा था। कई कमरोंमें प्राचीन हस्तलेख पांडुलिपियाँ ताड़पत्रों पर लिखी हुई दिखाई पड़ीं। सभी आलमारियोंको पुस्तकें एवं पांडुलिपियाँ सुशोभित कर रही थीं। ऐसा प्रतीत होता था कि हम किसी विश्वविद्यालय के ग्रंथागार में पहुँच गए हों। मुझे उस समय और भी आश्चर्य होता था जब वह मेरी आवश्यकता के अनुसार संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी के नाटकको अविलम्ब सामने लाकर रख देते थे । मेरी ऐसी दशा हो गई जैसी राजस्थानके प्यासे पथिककी जलाशय मिलनेवर होती है । वह यही चाहता है कि सारा सरोवर एक घूटमें पी डालू । नाहटाजी की संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी आदिकी ज्ञान राशि देखकर प्राचीन उद्भट आचार्य हेमचन्द्रकी स्मृति आ रही है। आचार्य हेमचन्द्रको उपर्युक्त सभी भाषाओंपर पूरा अधिकार था । उन्होंने जिस भाषा के साहित्यपर लेखनी उठाई उसी भाषाके साहित्यको पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया । नाहटा जीने अपना जीवन उसी आचार्यकी परम्परामें ढाल लिया है । इनकी बहुज्ञताका प्रमाण देखना हो तो इनकी रचनाओं और विशेषकर विभिन्न पत्रिकाओंमें प्रकाशित लेखों को देखना चाहिए। इनके लेखोंका वैविध्य देखकर आश्चर्य होता है । भारतीय दर्शनोंमें नाहटाजी की गहन पैठ है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन्होंने भारतीय दर्शनोंका कोना-कोना छान डाला है। जैन, बौद्ध, शंकर, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत दर्शनोंका इन्होंने अनेक बार स्पष्टीकरण किया है। भक्तोंके वैष्णव-दर्शन, कबीरादि सन्तोंकी निर्गुण उपासना, प्रेमाश्रयी कवियोंकी सूफी साधना तथा अन्य विविध साधना पद्धतियोंका इन्होंने गहराई में पैठकर अध्ययन किया है । वह जिस दर्शनका सैद्धान्तिक विवेचन करने लगते हैं उसीमें अपने प्रातिभ ज्ञान और गहन अध्ययनके बलपर अन्य दार्शनिकोंसे आगे निकल जाते हैं । इसका एक कारण है । इन्हें ज्ञानोपार्जनकी ऐसी सच्ची लगन है जो इन्हें अहर्निश अध्ययनकी प्रेरणा देती रहती है । विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तोंके तुलनात्मक अध्ययनसे इनकी बुद्ध इतनी प्रखर हो गई है कि दिव्य आलोकमें वह दर्शनशास्त्रके सूक्ष्मातिसूक्ष्म रहस्योंको अनायास देख लेते हैं । दार्शनिक सिद्धान्तोंके विश्लेषण और उनका साहित्य में प्रयोग तो नाहटाजीकी अनेक विशेषताओंमें एक है । हिन्दी जगत्‌को नाहटाजी का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने अपभ्रंश, अवहट्ट और प्राचीन हिन्दी के ऐसे शताधिक ग्रन्थोंको पाठकोंके सम्मुख रखा जिनका किसीको ज्ञान भी नहीं था । विस्मृत रासो परम्पराका पुनरुद्धार नाहटाजीके ही प्रयासोंका फल है । उन्होंने ऐतिहासिक रासोका प्रकाशन कर रास साहित्यकी अमूल्य गुप्त निधिका उद्घाटन किया। उन्हींसे प्रेरणा प्राप्त कर रास एवं रासान्वयी काव्योंका विधिवत् परीक्षण एवं विश्लेषण किया गया । सन् ५६-५७में इन्हीं रास ग्रन्थोंके सम्बन्धमें पुन: बीकानेर गया । वहाँ लगभग एक महीना ठहरा । नाहटाजीके पास अनेक प्राचीन रास ग्रन्थोंकी पांडुलिपियाँ मिलीं । नाहटाजीको प्राचीन पांडुलिपियों को पढ़नेका अद्भुत अभ्यास है । राजस्थानमें हस्तलिखित ग्रन्थोंका अतुल भंडार गाँव-गाँव में छिपा पड़ा है । नाहटाजीको इस बिखरी ग्रन्थ राशिका पूरा ज्ञान है। अनुपलब्ध हस्तलिखित ग्रन्थों की प्राप्ति उनके निजी स्रोत हैं, जिनके द्वारा वह प्राचीन पांडुलिपियोंका प्रतिवर्ष संग्रह करते रहते हैं । नाहटाजीका संग्रहालय भारतकी अमूल्य निधि है। किसी राज्य सरकारकी सहायताके बिना ही इतना विशाल संग्रहालय निर्मित करना नाहटाजी जैसे सरस्वतीके अनन्य उपासक के लिए ही सम्भव है । जो कार्य नागरी प्रचारिणी सभाने अनेक व्यक्तियोंके सहयोग और राज्यकोशकी सहायतासे काशी में सम्पन्न किया, उसी कार्यको राजस्थानमें एक व्यक्तिने एकमात्र अपनी साधनासे परिपूर्ण किया। काशी नागरी प्रचारिणी सभासे मेरा सम्बन्ध वर्षोंसे चला आ रहा है । पं० रामनारायण मिश्र, बाबू श्यामसुन्दर दास, ठा० शिवकुमार सिंह, रायकृष्ण दास प्रभृति समर्थ हिन्दी समर्थकोंने जो कार्य राज्यसरकारकी सहायतासे किया उसे एकाकी १५८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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