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________________ व्यापक प्रतिभा और असीम साहित्यानुरागकी आह्लादक अनुभूतियाँ वृद्धिंगत होती गयीं । आज कौन नहीं जानता कि नाहटाजी विविध विद्याओंके वारिधि हैं, जैनसिद्धान्तशास्त्रके आचार्य हैं, इतिहास और पुरातत्त्व संबंधी शोधमें अग्रसर है। सच तो यह है कि नाहटाजी का व्यक्तित्व इतना विराट् है कि शब्दोंकी परिधिमें वह समा नहीं सकता । राजस्थानी और जैन-साहित्यके लिए उनकी देन बहुमूल्य है । वे व्यक्ति नहीं संस्था है, यह कहना भी उनके लिए हल्का पड़ता है। अभय जैन ग्रंथालय जैसी विशाल संस्थाके संस्थापक और संचालक तो वे हैं ही, इससे भी अधिक उन्होंने उसका स्वयं उपयोग किया है, उसमें अन्तनिहित अमूल्य रत्नोंको सर्वसाधारणके समक्ष प्रस्तुत किया है और शताधिक अन्वेषकों एवं जिज्ञासुओंका प्रशस्त पथप्रदर्शन किया है। साहित्यिक संस्थानोंकी स्थापना करने वाले अनेक श्रीमन्त हो सकते हैं, साहित्यके मुद्रणमें भी अनेकोंने आर्थिक योग दिया है. अनेक दे रहे हैं. परन्तु क्या नाहटाजी उनकी श्रेणी में हैं ? सरस्वतीकी श्रीवद्धि करने में उन्होंने सर्वतोभावेन समग्र जीवन समर्पित किया है । इस दृष्टिसे वे अपनी श्रेणीमें अकेले ही हैं। उनकी समता कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती । 'सागरः सागरोपमः' यह उक्ति उनके जीवनपर पूर्णरूपसे चरितार्थ होती है। कैसा अद्भत व्यक्वित्व है नाहटाजी का! अनेक विरोधाभास उसमें किस खूबीके साथ समन्वित हो गये हैं ! पुरातनता और नूतनताका समन्वय उनमें देखनेको मिलता है। श्रद्धा और विवेकपूर्ण तर्कका एकीभाव कम महत्त्वपूर्ण नहीं । उलकवाहनी और हंसवाहनीमें सख्यभाव स्थापित करने में उन्होंने कमाल हासिल किया है। निःसन्देह नाहटाजी न केवल जैनसमाजके गौरव है, न सिर्फ राजस्थानकी प्रतिभाके प्रतीक हैं, वरन समग्र भारतके साहित्यसेवियोंके लिए भी अभिमानकी वस्तु हैं। इस अनूठे व्यक्तित्वका अभिनन्दन करना एक पवित्र कर्तव्यका पालन करना है। हार्दिक कामना है कि नाहटाजी चिरजीवी हों और उनकी सेवाएँ चिरकाल तक देशको उपकृत करती रहें। सरस्वतीके अनन्य उपासक श्री दशरथ ओझा सन् १९५० की एक सुखद घटना है । संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी नाटकोंपर शोधकार्य कर रहा था। कतिपय प्राचीन नाटक कहीं उपलब्ध नहीं हो रहे थे। अपने सुहृद विद्वद्वर डॉ० दशरथ शर्माके सामने मैंने अपनी समस्या रखी। उन्होंने मुझे श्री अगरचन्द नाहटा बीकानेरका पता बताया और परिचयके लिए एक पत्र भी दिया । मैं वह पत्र लेकर बीकानेर पहुँचा । नाहटोंके गुवाड़में ऊँची-ऊँची अट्टालिकायें दिखाई पड़ी। एक भव्य भवनके द्वारपर पहुँचा। द्वारपर एक व्यक्तिने मेरा स्वागत किया और मुझे दूसरी मंजिलपर श्री नाहटाजी के पास पहँचा दिया। नाहटाजी उस समय प्राकृतकी एक पांडुलिपिको पढ़ने में संलग्न थे। मैंने अपना परिचय दिया। उन्होंने जिस आत्मीयतासे मेरा स्वागत किया वह आज भी हृदयपर अंकित है। सरस्वतीके इस उपासकके स्नेह-सौजन्यपर मैं मुग्ध हो गया। उन्होंने मुझो साथ लेकर अपना विशाल पुस्तकालय दिखाया । एक बड़े विस्तृत 'हाल' का कोना-कोना प्राचीन एवं नवीन पुस्तकोंसे भरा पड़ा था। उससे व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण : १५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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