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वे भी मेरे प्रयोगके लिए, बिना किसी हिचकिचाहटके प्रस्तुत कर दिए। शोध-प्रबंधकी रूप-रेखा आदिके संबंध में भी उनसे पूरा विचार-विमर्श होता रहा और मैंने उससे पर्याप्त लाभ उठाया ।
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श्री नाइटाजीके अथक परिश्रमको देखकर मेरी आँखें खुल गई। मैं अपने तई यह समझा करता था कि पढ़ने-लिखने में मैं बहुत परिश्रम करता हूँ और मेरा जीवन बड़ा ही सुव्यवस्थित और नियमित है। किंतु श्री नाहटाके अनवरत स्वाध्याय और उनकी श्रमशीलताको देखकर मैं चकित रह गया। मैंने भोजन के बाद भी उन्हें कभी विश्राम करते हुए नहीं पाया । आजकल भी उनके यहाँ प्रातः ४ बजेसे लेकर रातको १० बजे तक काम चलता रहता है। रोज कई घण्टे तो केवल पत्र लिखने में व्यतीत होते हैं । पत्रिकाओं में लगभग १०० लेख सदा भेजे हुए रहते हैं और अनवरत नए तैयार होते रहते हैं ।
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'मरु-भारती' के संबंध में भी श्री नाहटाजीसे निरंतर परामर्श मुझे मिलते रहते हैं । वे यह देखकर क्षुब्ध होते हैं कि जितना काम मुझे करना चाहिए, प्रशासनिक व्यस्तता के कारण उतना काम में कर नहीं पाता । उनका सात्विक आक्रोश भी मेरे लिये बड़ा मधुर होता है और अंतमें चलकर उपादेय ही सिद्ध होता है ।
जब राजस्थानी लोक कथाओंके मूल अभिप्रायोंका में अध्ययन करने लगा और इस संबंध में मेरी कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। राजस्थानी लोक कथाओं के विशेष संदर्भ में जब कथानक रूढ़ियों के व्यापक अध्ययनको ही मैंने अपने डी० लि० का विषय चुना और वह राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत भी हो गया तो श्री नाहटाजीकी प्रबल इच्छा हुई कि मैं उनके पास जाकर बीकानेर रहूँ और अपने शोध-प्रबंधको पूरा कर हूं। इसमें कोई संदेह नहीं कि जब कभी यह सुयोग मुझे मिलेगा, श्री नाहटाजीके प्रोत्साहन और उनके द्वारा अमित शोष सामग्रीकी सुलभताके कारण यह शोध प्रबंध भी सुचारु रूपसे लिखा जा सकेगा ।
श्री नाहटाजीके व्यक्तित्वका एक रूप यह भी है जब वह कुछ समय आसाम आदिकी ओर जाकर व्यापार-व्यवसायमें अर्थार्जन करते हैं। इस प्रकार उपार्जित अर्थका वे जो सदुपयोग करते हैं, वह उनके निकटस्थ मित्रोंको भलीभाँति विदित है ।
श्री अगरचन्दजी नाहटा बहुत ही संस्कार-सम्पन्न, सहृदय, सेवाभावी और स्वाध्यायी व्यक्ति हैं। कल्याण आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उनके नैतिक मूल्य विषयक लेख छपते रहते हैं, जिनसे उनके अंतरंगकी झांकी मिलती रहती हैं।
न जाने कितने शोधक छात्रों और विद्वानोंने उनके पुस्तकालयसे लाभ उठाया होगा, न जाने अपने हाथ से कितने प्रेरक पत्र श्री नाहटाजीने अन्य शोधार्थियोंको लिखे होंगे और न जाने राजस्थानी और हिंदीके साहित्य-भंडारकी अभिवृद्धिके लिए उनके कितने लेख अब तक प्रकाशित हो चुके होंगे। हाँ, उनके अक्षरोंको पढ़ना अवश्य एक टेढ़ी खीर है। किसी पांडुलिपिको पढ़कर उसका अर्थ लगाना शायद सरल है किंतु उनके चींटीकी-सी टाँग वाले अक्षरोंको पढ़ना एक दुष्कर व्यापार है। ऐसा याद पड़ता है कि डॉ० दशरथ शर्माने एक बार मुझे लिखा था श्री नाटाका पत्र आता है तो पहले दिन दो एक वाक्य पढ़कर छोड़ देता हूँ, फिर दूसरे दिन कुछ वाक्य पढ़ता हूँ-इस तरह उनके पत्रको पढ़ने में दो-तीन दिन लग जाते हैं । निश्चित रूपसे श्री नाइटाजीके अक्षरोंमें बाबत में अतिशयोक्ति कर रहा हूँ किंतु कभी-कभी अतिशयोक्ति बिना काम चलता नहीं । और फिर शेक्सपियर के जगत्प्रसिद्ध नाटक Hamlet में कभी पढ़ा था बड़े आदमियोंके अक्षर ऐसे
१५२: अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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