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बादमें तो आपसे सम्पर्क साधनेकी जिज्ञासा जागृत हुई, जो अल्प समयमें ही सफल हो गई। सन् १९३२के मई मासमें मैं अपने एक मित्रके साथ ब्रह्म-देश, शामदेश और वहाँसे चीनकी सीमा पर प्रवास करनेकी भावना लेकर रवाना हआ और कलकत्ता पहुँचा । यहाँ सर्वप्रथम श्री पूर्णचन्द्र नाहरसे मेरी मुलकात हुई। ये भी 'जैन ज्योति' मासिकमें प्रकाशनार्थ समय-समय पर अपने लेख भेजा करते थे। आपका ग्रन्थ-संग्रह अपूर्व माना जाता था। अतः इसे देखने की जिज्ञासा होना स्वाभाविक ही था। तत्पश्चात् वहाँकी ४, जगमोहन मल्लिक स्ट्रीटमें स्थित 'नाहटा ब्रदर्स'की दुकान में गया। वहीं पर श्री अगरचन्दजी नाहटा और आपके भतीजे श्री भंवरलालजी नाहटासे परिचय हुआ। इन दोनोंकी सादगी, सरलता और जैन-साहित्यके प्रति अप्रतिम भक्ति देखकर मैं मुग्ध हो गया। मुझे यह जानकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि ६-७ दूकानोंका काम-काज सँभालते हुए भी आप इतना विद्या-व्यासंग प्राप्त कर सके और इसीमें मस्त रहते हैं।
____ इसके कुछ वर्ष पश्चात् मैं आपसे बीकानेरमें भी मिला। आपने यहाँ मुझे अपना निजी अभय जैन पुस्तकालय दिखाया, जिसमें अगणित जैन-धर्म ग्रन्थोंके अतिरिक्त हस्तलिखित पुस्तकोंका एक अच्छा-सा संग्रह था। साथही पुरातत्वसे सम्बन्धित कुछ वस्तुएँ भी इसमें संग्रहीत थीं। आप मुझे अपने साथ लेकर नगरमें स्थित अन्य ग्रन्थ-भण्डार एवं राज्य द्वारा संचालित पुस्तकालय दिखाने हेतु रवाना हो गये।
आपके साथ बैठकर भोजन करते हुए मैं यह जान सका कि आप अत्यन्त सादा एवं सात्विक
लिया करते हैं। आपके द्वारा प्रेमपर्वक खिलाई गई बाजरीकी रोटी और घरकी गायका दही अभी भी मेरे स्मृतिपटलपर ज्योंका त्यों विद्यमान है। मुझे आपके साथ समय-समयपर भोजन करने के अन्य अवसर भी प्राप्त हुए है। इससे मैं यह जान सका कि आप पर्व-तिथियोंके दिन हरे शाक आदिका त्याग करते हैं । इतना ही नहीं इसके उपरान्त अन्य भी कई नियमोंका आप पालन करते रहते हैं।
____ आपने अद्यावधि कितने लेख लिखे होंगे? यह बताना कठिन है । गुजराती, हिन्दी आदिके समाचारपत्रोंमें समय-समयपर आपके लेख प्रकाशित होते रहते हैं और उनमें विषयोंकी विविधता भी दृष्टिगोचर होती रहती है। ग्रन्थ-निर्माणके क्षेत्रमें भी आपका योग बहत सुन्दर है। इनमें खरतरगच्छके आचार्यवर्ग एवं इसके साहित्यके सम्बन्धमें आपने काफी लिखा है। इससे कुछ लोगोंकी यह धारणा बन गई है कि आपका झुकाव खतरगच्छकी ओर विशेष है। किन्तु, ऐसी धारणा बना लेना एक गम्भीर भूल होगी। आपने कभी भी साम्प्रदायिक व्यामोह व्यक्त नहीं किया है। इतना ही नहीं अपितु प्रसंग-प्रसंगपर आपने अपने उदारविचार व्यक्त कर समस्त जैन-समाजमें संगठन एवं ऐक्यका समर्थन किया है।
मेरे विचारसे वर्तमान जैन समाजमें ऐसा एक भी लेखक नहीं कि जो अपने लेखों द्वारा विविधिता एवं संख्यामें आपकी समता कर सके।
कुछ वर्ष पूर्व मेरे विचारमें आया कि श्रीमान् नाहटाजी द्वारा की गई साहित्यिक-सेवाका सार्वजनिक रूपसे अभिनन्दन किया जाय और ऐसा हआ भी। भारतके सुप्रसिद्ध बम्बई नगरमें इसी वर्ष श्रीमानतुंगसूरि सारस्वत समारोहमें विश्वविद्यालय अनुदान कमीशनके चेयरमैन पद्मभूषण डॉ० दौलतसिंह कोठारी के द्वारा सम्मानित होनेवाले विद्वानोंमें आपको अग्र स्थान दिया गया था।
तत्पश्चात् अल्प समयमें ही आपका सार्वजनिक सम्मान करनेका आयोजन किया गया। मुझे इससे अत्यन्त प्रसन्नता हुई है। जिस महापुरुषने अपने जीवनका इस प्रकारसे सदुपयोग कर भावी प्रजाके लिए एक उत्तम आदर्श प्रस्तुत किया है, उसके लिए मैं मात्र इतने ही शब्द कहूँगा कि 'धन्य नाहटाजी !'
१४२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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