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________________ सन्देश आचार्य श्री तुलसी श्री अगरचन्दजी नाहटा जैन-शासनके बहुश्रुत और साधनाशील उपासक हैं। आगम-साहित्यके अनुसार श्रुत और शील दोनोंकी समन्विति ही जीवनकी पूर्णता है । श्रुतविहीन शील और शीलविहीन श्रुत ये दोनों साधनाको सिद्धिकी भूमिका तक नहीं ले जा सकते। नाहटाजीने जैन-साहित्यको अनेक विद्वानों तक पहुँचाया है और उनका ध्यान आकृष्ट किया है। उन्होंने व्यावसायिक जीवन जीते हुए भी साहित्य-साधनाकी है यह अन्य श्रावकोंके लिए अनुकरणीय है। तेरापंथ धर्मसंघके अध्ययन और साहित्यको दूसरों तक पहुँचाने में नाहटाजीकी लेखनी मुक्त रही है। इनके द्वारा दूसरोंका परिचय हमें मिला है। इस प्रकार ये अनेक संघों और विद्वानोंके बीच माध्यमका काम करते रहे हैं। जैन-शासनको वर्तमान स्थिति संतोषजनक नहीं है। वर्तमानके संदर्भ में उसमें अनेक नए उन्मेष और नए आयाम अपेक्षित हैं। भगवान महावीरकी पच्चीसवीं निर्वाण शताब्दीमें जैनधर्मके विकासका सुन्दरतम अवसर है। संगठनको अधिक मजबूत करनेकी आवश्यकता है। यह समय सबके लिए समन्वय और सद्भावनाकी वृद्धि का है। इस कार्य में सब साधुओं और श्रावकोंका समन्वित प्रयत्न आवश्यक है । इसकी पूत्तिमें साधुओंकी भाँति श्रावक भी योग्य बनें और जैन शासनको प्रभावी बनाएँ। यशस्वी पत्र श्री उपाध्याय अमरमुनि श्री अगरचन्दजी नाहटा दो माताओंके यशस्वी पुत्र हैं। यह नहीं कि एक के औरस पुत्र हैं, तो दुसरीके दत्तक हैं, गोद लिए हुए । दोनों ही माताओंके वे एक समान साक्षात् अंगजात पुत्र हैं। आप कहेंगे, यह असम्भव है । मैं कहूँगा, इस असम्भवमें ही तो श्री नाहटाजीकी गरिमा है। सम्भवतामें कहीं अद्भुतताकी चमत्कृति होती है ? नहीं, - असम्भवताकी सम्भवतामें ही वह विलक्षण चमत्कार है, जो श्री नाहटाजीने कर दिखाया है। आप जैसे कि मां लक्ष्मीके यशस्वी पुत्र हैं, वैसे ही मां सरस्वतीके भी लब्धप्रतिष्ठ पुत्र हैं। दोनोंकी ही एक समान सहज कृपा है नाहटाजी पर । पुरानी उक्ति है सरस्वती और लक्ष्मीमें वैर है। किंत श्री नाहटाजीके यहाँ तो दोनों ही लीलायित हैं । ऐसा सुयोग विरल ही कहीं मिल पाता है। नाहटाजीने एक व्यापारी कुलमें जन्म लिया है। वह भी राजस्थानीय मरु प्रदेशके व्यापारी कुलमें, जहाँ इस प्रकारके शिक्षणकी, साहित्यिक अध्ययन एवं सजनकी कम ही सम्भावना रहती है यह भी नहीं कि नाहटाजीने व्यापार क्षेत्र छोड़ दिया हो और एकान्त साहित्य क्षेत्र ही अपना लिया हो प्रारम्भसे ही वे व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण : १२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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