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मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
मुनि श्री पूनमचन्द जी को अपने पास बुलाया, गुरु भगवंत ने पूछा - " मैंने सुना है कि- आपने ज्ञानाभ्यास का क्रम बिलकुल बन्द जैसा कर दिया है । ऐसा क्यों ? क्या ज्ञान में उद्यम करना बुरा है ?"
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ऐसा नहीं महाराज ! मैं क्या करूँ ? मेरी बुद्धि इतनी मोटी है कि मुझे ज्ञान की एक बात याद नहीं रहती है। मुनि श्री पुनमचन्द जी ने कहा ।
ऐसी बात नहीं मुनि जी ! क्या आप नहीं जानते हैं ? " करत-करत अभ्यास के जड़ मति होत सुजान," मेरे पास बैठिए । ज्ञान कैसे नहिं आता है ? अवश्य आएगा, अवश्य याद रहेगा। सच्चे मन से किया हुआ उद्यम कभी भी व्यर्थ नहीं जाता है ।
चरित्रनायक श्री की बलवती प्रेरणा ने ऐसी चेतना फूँकी कि उन्हें तेरह शास्त्रों का अध्ययन पूरा करवा कर - यह बता दिया कि - मन्दबुद्धि विद्यार्थी भी विद्वानों की संगति पाकर विद्वान बन सकता है । अन्य मुनियों के लिए भारी विस्मय का विषय बन गया था कि - श्री कस्तूरचन्द जी महाराज ने श्री पुनमचन्द जी महाराज को कैसे विद्वान बना दिया ?
2 हीरा मुख से न कहे लाख हमारा मोल
गुरु भगवंत श्री का सं० २००४ का वर्षावास कोटा (राजस्थान) में था । प्रवचन पीयूष का मंद सुगंध शीतल स्रोत जन-जीवन की मानस स्थली को सरसब्ज बना रहा था । फलस्वरूप स्थानीय श्रावक-श्राविका समाज में धर्म- ध्यान एवं जप-तप की अनूठी प्रभावना होने लगी । धर्म- चर्चार्थ कई जैन- जैनेतर मानव गुरु प्रवर के सान्निध्य में उपस्थित हुआ करते थे । कोटा निवासी एक हस्त रेखा विज्ञ विद्वान आकर बोला
"क्यों महाराज ! हस्त रेखा एवं ज्योतिष सम्बन्धी कुछ ज्ञान - विज्ञान का जानपना है ?"
" बड़ा बड़ाई न करे, बड़ा न बोले बोल " - इस विचारधारानुसार गुरुदेव ने आगंतुक विप्रवर से सरल मुद्रा में कहा - " पंडित जी ! काम चलाऊ । अर्थात् सिन्धु में से बूंद के समान समझ लीजिए ।"
जैसा चाहिए वैसा संतोष नहीं होने से पंडित वहाँ से चलता बना और कुछ दूरी पर बैठे हुए मुनियों के पास जाकर धीरे से बोला- “आपके बड़े मुनि महाराज कम पढ़े-लिखे मालूम होते हैं ?"
प्रत्युत्तर में साथी मुनियों ने कहा- “पंडित जी ! आपका अनुभव बिल्कुल गलत है । क्या आप नहीं जानते हैं ? भरा हुआ घड़ा कभी शब्द नहीं करता है“सम्पूर्ण कुम्भो न करोति शब्दम् ।" तदनुसार हमारे बड़े महाराज (श्री कस्तूर चन्द जी महाराज ) श्री जैन आगमों में ज्योतिष एवं सामुद्रिक ज्ञान में काफी पहुँचे हुए हैं ।
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