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मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
गुरुदेव श्री कस्तूरचंदजी महाराज के गुणगान
दौलतसिंह तलेसरा, भादविगा निवास, बाटेसर महादेव, उदयपुर ओ जिन शासन के ताज, कस्तूर 'महाराज', बड़े उपकारी - मैं बार- बार बलिहारी ॥ टेर || जावरा - शहर में जनम जो पाया, मात फूलां के गोद में आया, " रतीचन्द" ने प्यार लड़ाया, बालपणा में वैराग्य छाया, सर्व खूबचन्द के शरणें आया, आत्म- बलसुं ज्ञान रमाया, संयम क्रिया में ध्यान लगाया, शुद्ध चारित्र से ज्ञान सुणाया, ज्योतिष कला अति भारी || ३ || ओ० अन्य जाती को राहा बताया, नगर-नगर में आप पधारघा,
घर-घर खुशियां भारी || १|| ओ० कुटुम्ब को दूर हटाया,
शिक्षा ग्रहण जारी ||२|| ओ०
सब को अपना भक्त बनाया, किया बहुत उपकारी ||४|| ओ० पोषधशाला में पगल्या होते, जन-जन को आप दर्शन देते,
मंगलीक देते - ताजीम
देते,
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वृध अवस्था सुखी बिताते, शिष्य मण्डली सेवा दौलत सिंह हैं दास तुम्हारा, वन्दन लीजो गुरु हमारा, भक्तों के हो तुम रखवारा, जुगजुग जीओ बलिहारी ||७|| ओ०
धरणां झुके नर नारी ॥५॥ ओ० रतनपुरी में निव लगाते, करते, धन्य-धन्य - महिमा थांरी ॥ ६ ॥ ओ०
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ष वित्त
दीन बंधु
इनही गुरुवर की सहाय कीजे,
समाज में विजय कीजे, इनही के नाम की । इनही की ताकत सों, समाज को सुर्धारियो काज,
ह की शासन सों, संघ ने मौज की ॥ "कस्तुर" को इकबाल, सौ गुनो बढ़ावे प्रभू,
तरक्की होय समाज में, सब ही काम की । मुनिगण शिष्य की, उमर दराज कीजे,
आयु दीर्घ कीजे प्रभू "कस्तूर" महाराज की ॥ १ ॥
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कोई कह्यो रे गुरु दर्शन की, आवन की मन भावन की, आप न आवे लिख नहि भेजे, बाण पड़ी ललचावन की ॥१॥ ए दोई ने कह्यो नहि मानें, नदियाँ बहे जैसे सावन की, कहा करूँ कछु बस नहि मेरो, पांख नहिं उड़ जावन की ||२|| वृधापन में रोगी म्हें तो, साथ मिले भला आवन की, दौलत कहे गुरू कद मिलेगो, दर्शन देय मुख हंसन की ॥ ३ ॥
गाय-भैंस - पशुओं की हाथीदांत तथा
पोहा
चमड़ी, आती सौ सौ - काम ।
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कस्तुरी,
बिकती
मंहगे दाम ||
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