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१/ संस्मरण :आदराञ्जलि : २३
प्रखर प्रतिभाशाली • डॉ० चेतनप्रकाश पाटनी, जोधपुर
प्रोफेसर महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यका नाम स्मृति पटलपर आते ही उस साहित्यिक-दार्शनिक व्यक्तित्वको छवि मत होती है जिसने बौद्धिक जगत्में जैनधर्म और दर्शनके सम्बन्धमें प्रचलित भ्रान्तियोंका निवारण कर उसकी महनीय देनको विद्वद्जगत्के सम्मुख प्रस्तुत किया। प्रखर प्रतिभाके धनी डॉ० जैनने अपने अल्पकालीन जीवनमें धर्म, दर्शन, साहित्य, समाज और देशकी जो सेवा की है वह अनपम है। उनका साहित्यिक अवदान सश्रद्ध अभिनन्दनीय है।
न्यायाचार्य, न्यायदिवाकर आदि पदवियोंसे विभूषित प्रोफेसर जैन अपने विषयके परिनिष्ठित विद्वान थे। अनेक प्राचीन दुरुह दार्शनिक ग्रन्थोंका उन्होंने बड़ी कुशलतासे सम्पादन किया। न्यायविनिश्चय विवरण, प्रमेयकमलमार्तण्ड, तत्त्वार्थवृत्ति, तत्त्वार्थवार्तिक आदि गम्भीर एवं क्लिष्ट कृतियोंका सम्पादन उनके गहन अध्ययन, विषय-मर्मज्ञता और सम्पादन-कुशलताका साक्षात्कार कराता है ।
महापण्डितों, दार्शनिकों और विद्वानोंके अनेकान्त और स्याद्वाद विषयक भ्रान्त विचारों की उन्होंने तीव्र आलोचना की और उनकी भ्रान्त धारणाओंको निर्मूल सिद्ध किया। उनकी पीडा थी कि प्रायः लोग जैनधर्म और दर्शनको साम्प्रदायिक दृष्टिसे ऊपर उठकर नहीं देखते। यह दूषित दृष्टि है। उनकी मान्यता थी कि "दर्शनके क्षेत्र में दृष्टिकोणोंका भेद तो स्वाभाविक है, परन्तु जब वे मतभेद साम्प्रदायिक वत्तियोंकी जड़में चले जाते हैं, तब वे दर्शनको तो दूषित कर ही देते हैं, साथ ही स्वस्थ समाजके निर्माणमें बाधक बन देशकी एकताको छिन्न-भिन्न कर विश्वशान्तिके विघातक हो जाते हैं।"
जैनदर्शन और धर्मके सम्बन्धमें प्रचलित साम्प्रदायिक संकीर्ण विचार सदैव उनकी चिन्ताके विषय रहे । अपनी सम्पादित कृतियोंकी विस्तृत प्रस्तावनाओंमें उन्होंने इनका निराकरण करनेका भरसक प्रयास किया और फिर इसी क्रममें महापण्डिन राहुल सांकृत्यायनके उलाहनेसे प्रेरणा प्राप्त कर उन्होंने 'जैनदर्शन' नाम की महत्त्वपूर्ण रचना का सृजन किया। व्यापक और तुलनात्मक दृष्टिसे जैनदर्शनके स्वरूपको स्पष्ट करने वाली यह कृति अपने में मौलिक, परिपूर्ण और अनूठी है ।
समाजमें नियतिवादके एकान्तसे प्रसारित होने वाली पुरुषार्थहीनता भी उनकी गहन चिन्ताका विषय थी। उन्होंने अपनी सबल लेखनीसे नियतिवादको दृष्टिविष कहते हए इस मिथ्या एकान्त धारणाका प्रबल शब्दोंमें खण्डन किया । मैं उनके शब्दोंको यहाँ उद्धृत करनेका लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ । 'तत्त्वार्थवृत्ति' की प्रस्तावनामें उन्होंने लिखा
"यह नियतिवादका कालकूट 'ईश्वरवाद'से भी भयंकर है। ईश्वरवादमें इतना अवकाश है कि यदि ईश्वरकी भक्ति की जाय या सत्कार्य किया जाय तो ईश्वरके विधानमें हेरफेर हो जाता है। ईश्वर भी हमारे सत्कर्म और दुष्कर्मों के अनुसार ही फलका विधान करता है । पर यह नियतिवाद अभेद्य है। आश्चर्य तो यह है कि इसे 'अनन्त पुरुषार्थ' का नाम दिया जाता है। यह कालकूट कुन्दकुन्द, अध्यात्म, सर्वज्ञ, सम्यग्दर्शन और धर्मकी शक्करमें लपेट कर दिया जा रहा है । ईश्वरवादी सांपके जहरका एक उपाय (ईश्वर) तो है पर इस नियतिवादी कालकूटका, इसी भीषण दृष्टिविषका कोई उपाय नहीं है क्योंकि हर एक द्रव्यकी हर समयकी पर्याय नियत है।
__ 'मर्मान्त वेदना तो तब होती है जब इस मिथ्या एकान्तविषको अनेकान्त अमृतके नामसे कोमलमति नयी पीढ़ीको पिलाकर उन्हें अनन्त पुरुषार्थो कहकर सदाके लिए पुरुषार्थ विमुख किया जा रहा है।"
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