________________
२४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
तत्त्वज्ञ प्रोफेसर सा० की पीड़ा सर्वथा चिन्तनीय है कि विश्वके सम्मुख 'अनेकान्त'का आदर्श प्रस्तुत करने वाले जैनदर्शनसे ये कैसे एकान्तके स्वर उठ रहे हैं और इनसे कैसी और कितनी हानि होने वाली है, इसका किसीको अनुमान नहीं है। मर्मान्त वेदनासे आहत होकर प्रो० जैन इन शब्दोंमें अपना 'विनम्र निवेदन' प्रस्तुत करते हैं
"मेरा यही निवेदन है कि हम सब समन्तभद्रादि आचार्यों द्वारा प्रतिपादित उभयमुखी तत्त्व-व्यवस्थाको समझें । कुन्दकुन्दके अध्यात्मसे अहंकार और पर-कर्तृत्व भावको नष्ट करें, कार्तिकेयकी भावनासे निर्भयता प्राप्त करें और अनेकान्त दृष्टि और अहिंसाके पुरुषार्थ द्वारा शीघ्र ही आत्मोन्नतिके असीम पुरुषार्थमें जुट । भविष्यको हम बनायेंगे, वह हमारे हाथ में है। कर्मों के उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा, संक्रमण, उद्वेलन आदि सभी हम अपने भावोंके अनुसार कर सकते हैं और इसी परम स्वपुरुषार्थकी घोषणा हमें इस छन्दमें सुनाई देती है
"कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरे जे । ज्ञानीके छिनमांहि, त्रिगुप्ति ते सहज टरें ते ॥ ४॥ ४ ॥
-पं० दौलतरामकृत छहढाला
भारतीय दर्शनोंके गम्भीर अध्येता, अनेकान्त और स्याद्वादके प्रबल पक्षधर, निर्भीक लेखक, प्रवीण सम्पादक, प्रखर दृष्टि और अद्भुत प्रतिभाके धनी उस महनीय व्यक्तित्वको मैं सश्रद्ध नमन करता हूँ। महान् दार्शनिक मनीषी • श्री जवाहरलाल जैन एवं श्रीमती कैलाश जैन , भीडर
परम आगमभक्त श्रीमान् अप्राप्तवार्धक्य, महान् दार्शनिक, न्यायनिपुण, अज्ञातशत्रु श्री पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य, प्राचीन न्यायतीर्थको कौन नहीं जानता ? हमने उनके दर्शन करनेका सौभाग्य नहीं प्राप्त किया तथापि उस सत्पुरुषके प्रति हमारा श्रेष्ठ हार्दिक (न कि शाब्दिक ) सम्मान है। क्योंकि जब जयधवला जैसे ग्रन्थराजकी पहली पुस्तक हम खोलते हैं उस महामानवका स्मरण हो आता है। इन्होंने ही तो जयधवलाजी की आद्य पुस्तकके सम्पादक होनेका सौभाग्य प्राप्त किया था। उसमें लगाये हुए न्यायशास्त्रीय बहुसंख्यक टिप्पण आपके ही हैं। गुरुजी पंडित फूलचन्द्रजी कहते थे-'मैं जयधवलाका अनुवाद करता जाता था साथ ही साथ पं० कैलाशचन्द्रजी उसे देखते जाते थे और पं० महेन्द्रकुमारजी टिप्पण लगातं जातं थे ।" प्रथम पुस्तक न्यायशास्त्रीय प्रकरणसे संभृत-आपूर्ण है।
स्याद्वाद सम्बन्धी प्रकरणोंको ढूंढनेके सिलसिले में हमने आपका 'जैनदर्शन" देखा तो आपके न्याय शास्त्रीय तलस्पर्शी ज्ञानसे हमें सम्पर्क हुआ। आप वस्तुतः अपने कालके-इस शतीके श्रेष्ठ न्यायज्ञ गिने जाने योग्य हैं । आपके सम्पादनमें कोई भी विद्वान् प्रश्नचिह्न नहीं लगाता। पूज्य १०५ महाविदुषी सुपार्श्वमतिमाताजीने राजवातिकका अनुवाद किया तो राजवातिक मूलके महेन्द्रकुमारीय सम्पादनको ही प्रामाणिकतम माना।
आपने सदा ही आर्ष कथनको ही मुख्यता दी ।
हम दिवंगत प्राज्ञके प्रति "अपनी स्नेह-स्मृति-पटलकी मंजुल रेखाओं पर आपका नाम सदैव लिखे रखेंगे", यही श्रद्धाञ्जलि सम्प्रेषित करते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org