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१ / संस्मरण : आदराञ्जलि : २१
उत्कट मनीषा के धनी
• श्री नीरज जैन, सतना
भारतीय ज्ञानपीठके माध्यमसे जैन आगम या पुराण-ग्रन्थोंका प्रकाशन प्रारम्भ हो चुका था । ज्ञानोदय भी इस दिशा में नियमित प्रगति कर रहा था। उस समय श्रीमान् साहु शान्तिप्रसादजीने जैन पुरा - विद्या के प्रचार-प्रसार के बारेमें कोई योजना बनानेके लिये परामर्श के विचारसे कुछ विद्वानोंको कलकत्ते बुलाया था । तब भारतीय ज्ञानपीठ बनारससे हो संचालित होती थी। मैंने बनारस होकर हो कलकत्ता गया था । उस यात्रा में पं० महेन्द्रकुमारजीसे मेरा कुछ निकट परिचय हुआ । इसके पूर्व सागरमें उनसे मिलनेका और उनके अगम ज्ञानकी बानगी देखनेका अवसर मिल चुका था, परन्तु निकटता उनसे नहीं हुई थी ।
तीन-चार दिनोंके समागम में अनेक विषयोंपर बहुत सी चर्चाएँ होती रहीं । साहुजी और उनके सहयोगी श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलीयने एक रूपरेखा बनाकर उससे संबद्ध कुछ प्रश्न चुन रखे थे । उन्हींपर चर्चा होती रही । मूल अभिप्राय यह था कि स्थापत्य, मूर्तिकला और चित्रित पाण्डुलिपियोंके क्षेत्रमें दिगम्बर परम्पराकी कलाकी पृथक पहिचान दिलानेका क्या उपाय हो सकता है ।
तब मैंने पहली बार पं० महेन्द्रकुमारजोके गहन पाण्डित्यको यथार्थ झलक पहली बार देखी । कहना कठिन था कि उनकी विशेषज्ञता किस विषयमें है । वैसे तो वे जैन न्याय के पारंगत विद्वान् के रूपमें जाने जाते थे, परन्तु उस यात्रामें मैंने देखा कि चर्चा चाहे साहित्य पर हो, या कला हमारी वार्ताका विषय हो, न्यायका गहन प्रकरण हो या भक्तिका सरल-सा संदर्भ हो, महेन्द्रकुमारजी उसपर अत्यन्त सटीक टिप्पणी करते थे । उनकी दृष्टि उदार थी और उन्हें देश-कालका अच्छा अध्ययन था । वे वैचारिक सहिष्णुताके पक्षधर तो थे, पर सिद्धान्तोंके प्रति उनमें कोई लचीलापन नहीं था । सिद्धान्त- रक्षाको वे जीवन-रक्षाकी तरह आवश्यक और महत्वपूर्ण मानते थे और उसपर टससे मस होने को तैयार नहीं थे । उनमें अपनी दृढ़ मान्यताओं को, असहमत व्यक्तियोंके समझ, नम्रतापूर्वक कहनेकी सहज सामर्थ्य थी । " मनभेद" रहित " मतभेद" पर अडिंग बने रहना शायद उनके व्यक्तित्वका सबसे चमकदार पहलू उन दिनों मैंने लक्ष्य किया ।
कुछ समय बाद गुरुवर पूज्य न्यायाचार्य क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी महाराजके चरण- सान्निध्य में उनके साथ कुछ समय बिताने का अवसर प्राप्त हुआ । शायद दो दिन तक अकलंकदेवके अवदानके बारेमें दोनों न्यायाचार्यों में गहन चर्चा होती रही । न्यायका विषय मेरे लिये आज भी दुरूह है, उन दिनों तो उसका तात्पर्यं समझना भी मेरे लिए कठिन था, पर मुझे उस चर्चामें जो आनन्द आया और पण्डित महेन्द्रकुमारजी की ज्ञान-निधिकी जो चमक मैंने उन दो दिनोंमें देखी उसने मुझे बहुत प्रभावित किया। उन्होंने मेरे साथ भाई जैसा ही स्नेहपूर्ण व्यवहार किया परन्तु मेरे लिए आदरणीय और एक विलक्षण प्रतिभावाले विद्वान्के रूप में मान्य रहे । बादमें प्रसंगवश दो बार मेरे घरपर भी उन्होंने आतिथ्य ग्रहण किया ।
उनके द्वारा अनूदित विशाल- विशाल ग्रन्थोंकी शोधपूर्ण प्रस्तावनाओं में जहाँ उनके तलस्पर्शी आगमज्ञानका परिचय मिलता है वहीं दूसरी ओर उनकी अमर मौलिक कृति "जैनदर्शन" में उनकी पैनी दृष्टि तथा देव-शास्त्र-गुरुके प्रति उनकी अडिग आस्था दिखाई देती है । मेरी ऐसी कुछ मान्यता है कि न्याय -ग्रन्थों का अनुवाद और सम्पादन महेन्द्रकुमारजोके मस्तिष्क की सम्पन्नताका परिचायक है परन्तु "जैनदर्शन" में उनका हृदय ही धड़कता है । वह ग्रन्थ उनके ज्ञानमें से नहीं, उनको आस्थामें से स्रजित हुआ है । वह कालजयी रचना है और यदि उसका प्रचार-प्रसार युगानुरूप होता रहा तो वही कृति महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यको दीर्घकाल तक जैन-जन-मानस में जीवित रखेगी ।
बस, यही शब्द-सुमन समर्पित करके मैं उनकी स्मृतियोंको प्रणाम करता हूँ ।
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