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२० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
ज्ञानपीठमें पं० जी ने ही सर्वप्रथम सम्पादन कार्य प्रारम्भ किया था। आपने अपनी उच्च प्रतिभाके बलपर जैनदर्शन और जैन न्यायके अनेक दुरूह ग्रन्थोंका आधुनिक शोधपूर्ण शैलीमें विद्वत्तापूर्ण सम्पादन किया है। आपके द्वारा सम्पादित ग्रन्थोंमें आपकी उच्चकोटिकी प्रतिभा स्पष्ट झलकती है। पं० जीके द्वारा सम्पादित ग्रन्थोंसे तथा उन ग्रन्थोंकी प्रस्तावनाओंसे अनेक मौलिक तथ्योंका उदघाटन होता है। अतः आपके द्वारा लिखित वैदुष्यपूर्ण प्रस्तावनाएँ विशेष रूपसे पठनीय, चिन्तनीय और मननीय हैं। आपके द्वारा सम्पादित ग्रन्थोंमें अधिकांश ग्रन्थ जैन न्यायके प्रतिष्ठापक आचार्य अकलंकदेव प्रणीत हैं। और पं० जीके द्वारा सम्पादित अधिकांश ग्रन्थोंका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ है। जैन दर्शन तथा न्यायके अनेक उच्चकोटिके ग्रन्थोंके सम्पादनके अतिरिक्त पं० जीकी एक मौलिक कृति भी है जिसका नाम है--जनदर्शन । इस कृतिमें जैनदर्शनके अनेक मौलिक तत्त्वोंका प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है।
उच्चकोटिके प्रतिभाशाली विद्वान्को अपने बीचमें पाकर जैन समाज गौरवान्वित हई। किन्तु यह दुर्भाग्यकी हो बात है कि क्रूरकालने ४८ वर्षकी अल्प अवस्थामें ही पं०जो को जैन समाजसे छोन लिया। यदि पं०जी २०-२५ वर्ष और जीवित रहते तो आगेके जोवनमें वे अपने सम्पादन और लेखन द्वारा और भी अनेक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक तथा सामाजिक कार्य सम्पन्न करते किन्तु सन् १९५९ में उनके असामयिक निधनसे जैन समाजको और विशेषरूपसे विद्वत्समाजकी जो महती क्षति हुई है उसकी पूर्ति ३६ वर्षका समय बीत जाने पर भी आज तक नहीं हो सकी है और न निकट भविष्यमें होने की सम्भावना है।
आदरणीय पंजी मेरे गुरुजी तथा पथप्रदर्शक रहे हैं। मैं श्री वीर दि० जैन विद्यालय पपौरासे व्याकरण मध्यमा उत्तीर्ण करके सन् १९४० में स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी में अध्ययनार्थ आया था। उस समय मेरे लिये यह बात विचारणीय थी कि शास्त्रीमें कौन सा विषय लिया जाय । तब पं०जीने अपनी दूरदष्टिसे मुझे सुझाव दिया था कि किमी नवीन विषयको लेना ठीक रहेगा। अत: उनके परामर्शसे मैंने बौद्धदर्शन विषय ले लिया। और क्रमशः बौद्धदर्शन शास्त्री तथा आचार्य करने के बाद मैंने सर्वदर्शनाचार्य भी उत्तीर्ण कर लिया।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पंजीसे मेरा घर जैसा निकटका सम्बन्ध रहा है। यही कारण है कि जब आप स्याद्वाद महाविद्यालय छोड़कर भारतीय ज्ञानपीठमें चले गये थे तब भी आवश्यकतानुसार घर पर मेरे अध्ययनमें सहर्ष सहयोग देते रहे । आपने मुझसे कह दिया था कि जब भी कुछ समझना या पूछना हो तब निःसंकोच धर आ जाया करो। इससे मुझे बौद्धदर्शनके अध्ययनमें विशेष कठिनाई नहीं हई ।
यहाँ यह भी ज्ञापनीय है कि आदरणीय पं०जी मुझसे विशेष स्नेह रखते थे और चाहते थे कि मैं उनके मार्गदर्शनमें सम्पादन कार्यका प्रशिक्षण प्राप्त करूं। अतः पं०जीने सम्पादन कार्य सीखनेके लिए मुझे भारतीय ज्ञानपीठसे विशेषवृत्ति दिलवाई थी। उस समय पं०जो तत्त्वार्थवृत्तिका सम्पादन कर रहे थे और मैंने पंजीके निर्देशानुसार तत्त्वार्थवृत्तिके सम्पादन कार्य में पं०जीको सहयोग दिया था। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मैंने सम्पादनके समय तत्त्वार्थवृत्तिका हिन्दी सार लिखा था जो मलग्रन्थके साथ १८३ पृष्ठोंमें मुद्रित है । इस हिन्दी मारमें तत्त्वार्थसूत्र पर श्रुतसागरसूरिका जो विवेचन है वह प्रायः पूरा संगृहीत है और संस्कृत न जानने वालोंके लिए यह बहुत ही उपयोगी है। तदनन्तर भारतीय ज्ञानपीठसे तत्त्वार्थवृत्तिका प्रकाशन होने पर उसके मुख पृष्ठपर पंजोने अपने नाम के साथ मेरा नाम भी सहायकके रूप में दिया है। ऐसी थी पं०जी की उदारता और सदाशयता।
स्मति ग्रन्थके प्रकाशनसे पं०जी की विद्वत्ता और कार्यों में प्रेरणा प्राप्त होगी। पूज्य पंजीके चरणोंमें अपने श्रद्धासुमन समर्पित करता हुआ उनको शत-शत वन्दन करता हूँ।
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