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१ / संस्मरण : आदराञ्जलि : १९
तरह विद्या-व्यसनी जीवन पर अध्ययन-अध्यापनकी धार चढ़ गई और प्रतिभा निरन्तर पैनोसे पैनी होती गई। फिर तो अज्ञान-तिमिरकी न जाने कितनी परतें इस ज्ञानदीपने भेद डालीं और ज्ञान पिपासुओंका मार्ग प्रशस्त कर दिया। साहित्यके क्षेत्र में अग्रणी संस्था भारतीय ज्ञानपीठसे पंडितजी जब जुड़े तो अपनी कुशलता और बौद्धिक प्रतिभासे उसकी कीर्तिको चार चाँद लगा दिए।
न केवल जैन समाज बल्कि सम्पूर्ण साहित्य जगत इस विद्वान मनीषीको उसके अमर कृतित्वसे सदैव याद रखेगा। आपका स्मृति ग्रन्थ उन सब व्यक्तियोंके जीवनको प्रेरणा एवं स्फति प्रदान करेगा जो माँ सरस्वतीकी वीणाके तारोंसे झंकृत है। आपके इस प्रयासके लिए मेरी समस्त शुभकामनाएँ हैं। अन्तम इस वन्दनीय व्यक्तित्वके प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हए ज्ञान-सूर्यको पुनः प्रणाम करता हूँ। असाधारण व्यक्तित्व के धनी • श्री सुबोधकुमार जैन, आरा
डॉ० महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थका प्रकाशन, एक ऐसे कर्मठ और विद्वत्वर व्यक्तिकी स्मृतिको संजोकर रखनेका निणय है, जिसका जैन समाज हो नहीं अपितु भारतवर्ष के विद्वत् समाजमें भरपूर स्वागत होगा।
इनकी मौलिक रचनाएँ और भारतीय ज्ञानपीठ के उदयकालमें इनके द्वारा भारतीय ज्ञानपीठकी नींव को मजबूत बनानेका प्रयास कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।
४७ वर्ष के अल्पायुमें इतना कुछ कर जाना साधारण बात नहीं है । वे सचमुच असाधारण व्यक्तित्वके धनी थे।
मैं उनकी स्मृतिमें अपनी सादर श्रद्धांजलि प्रेषित कर रहा हूँ। अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व • प्रो० उदयचन्द्र जैन, सर्वदर्शनाचार्य, वाराणसी
आदरणीय डॉ०५० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न और विद्वज्जगतके जाज्वल्यमान नक्षत्र थे। आपने अपनी प्रतिभा और ज्ञानका जो विकास किया वह अनुपम तथा सबको आश्चर्यचकित करनेवाला है। आप विद्याव्यसनी तथा सम्पादन कलामें प्रवीण थे। आपने स्याद्वाद महाविद्यालय काशीमें न्यायाध्यापक पद पर रहते हुए न्यायाचार्य परीक्षा सफलतापूर्वक उत्तीर्ण की, तथा श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, श्री पं० सुखलालजी संघवी, श्री पं० दलसुखजी मालवणिया आदि उच्चकोटिके विद्वानोंके साथ घनिष्ठ सम्पर्क होनेके कारण सम्पादन कलामें अच्छी प्रवीणता प्राप्त कर ली । भारतीय ज्ञानपीठमें जाने के पहले ही आपके द्वारा प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, अकलंकग्रन्थत्रय और प्रमाणमीमांसाका संपादन और प्रकाशन हो चुका था। इससे जैन समाज तथा विद्वज्जगत्में आपकी अच्छी ख्याति हो गई थी।
यहाँ यह उल्लेख करना अप्रांसगिक नहीं होगा कि श्रीमान् साह शान्तिप्रसादजी तथा उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रमारानीजीने अप्रकाशित जैन वाङ्गमयके संरक्षण, संशोधन, सम्पादन और प्रकाशनके लिए सन् १९४४ में काशी में भारतीय ज्ञानपीठकी स्थापना की थी। और उस समय ज्ञानपीठके सफल संचालनके लिए एक योग्य संचालककी आवश्यकता थी। तब पं० जीकी योग्यता और विद्वत्तासे प्रभावित होकर साहजीने पं० जीको ज्ञानपीठके संचालक पदपर नियुक्त किया था। इसके साथ ही मतिदेवी जैन ग्रन्थमालाका सम्पादक तथा नियामक भी बनाया था। ज्ञानपीठमें आ जानेपर पं० जीने ज्ञानपीठकी प्रगतिके लिए बहुत परिश्रम किया और थोड़े ही समयमें ज्ञानपीठके कार्यको बहुत आगे बढ़ा दिया ।
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