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१८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
कर्मोंको शुभ कर्मों में बदला जा सकता है । पुरुषार्थ में इतनी शक्ति है कि वह भाग्यको भी बदल सकता है । यह नई दृष्टि मेरे लिए बहुत प्रेरणादायक रही।
पण्डितजी अल्पायुमें ही चले गए । उनके बारेमें पूज्य पिताजी और माताजीसे बराबर सुनता था कि उनके असामयिक निधनसे समाज और जैनदर्शनकी अपुरणीय क्षति हुई है। उनके उदार दृष्टिकोणसे मेरे माता-पिता बहुत प्रभावित थे। प्राचीन और विलुप्तप्राय जैन ग्रन्थोंके प्रकाशनके लिए बाबूजी व माताजीने जब भारतीय ज्ञानपीठकी स्थापना की थी तो पण्डितजीको हो उसका कार्य भार सौंपा था। वे यद्यपि कुछ ही वर्षों तक ज्ञानपीठसे जुड़े रहे पर अपनी प्रतिभा और ज्ञानसे उन्होंने ज्ञानपीठको शीर्ष साहित्यिक संस्था बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
पण्डितजी अब नहीं हैं, बस उनकी स्मतियाँ शेष हैं पर आज भी मझे पण्डितजी सबसे हटकर उदार विचारोंके विद्वान् प्रतीत होते हैं जिनकी बातोंसे मेरे जीवनको बहुत लाभ हुआ।
वास्तवमें पं० महेन्द्रकुमारजी का सम्पूर्ण जीवन ही ज्ञानके संचय और उसके वितरणकी प्रवाहमान मन्दाकिनीकी तरह था । इसमें जो भी नहाया, अज्ञानके कल्मषसे मुक्ति पा गया । जैन समाजकी प्रतिष्ठाको बढ़ाने वाले ऐसे ज्ञान-गौरवके प्रति मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि । उनकी स्मृति में प्रकाशित होने वाले ग्रन्थके पोछे उपाध्याय श्री ज्ञानसागरजी महाराजकी प्रेरणा है। गुरुका आशीर्वाद सदैव कल्याणकारी होता है । मुझे विश्वास है कि बहमुखी प्रतिभाके धनी डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य के जीवनको उद्घाटित करनेवाला यह ग्रन्थ समाजको विशेषकर युवा एवं ज्ञान-पिपासू वर्ग को निरन्तर प्रेरणा देता रहेगा।
मैं आपके इस प्रयासकी सफलताको कामना करता हूँ। सरस्वती के महान् उपासक • साहु रमेशचन्द्र जैन, दिल्ली कार्यकारी निदेशक-टाइम्स आफ इण्डिया, दिल्ली
सोचता हूँ, विचारता हूँ कि एक फूल हर सिंगार का, बस रात भरका जीवन, संध्याके धुंधलके में चन्द्रोदयकी प्रथम किरणके साथ अठखेलियाँ करते हुए खिला और ऊषाकी गुदगुदाहटके साथ झर गया, पर मात्र एक रातके जीवनमें आस-पासके सारे वातावरणको सुवासित कर गया। डाँ० पं० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यका जीवन भी कुछ ऐसा ही था। केवल ४७ वर्षकी अल्पायुमें उनकी साहित्यिक-प्रतिभाकी सरभिने सुधी जगतको एक छोरसे दूसरे छोर तक अपने आगोशमें ले लिया। वह सुगन्ध आज भी व्याप्त है और दर्शन तथा न्याय-शास्त्रके प्रेमियों के मन-मस्तिष्कको सराबोर कर रही है।
मैं परम पूज्य युवा मनीषी उपाध्याय श्री ज्ञानसागरजी महाराजके चरणों में सादर वन्दन करता हूँ कि उन्होंने एक ऐसे साहित्य-सृष्टा और दृष्टाकी पावन स्मृतिको ग्रन्थबद्ध करने की प्रेरणा दी और आपको बधाई देता हूँ कि आप उस उपक्रमको फलीभूत कर रहे है।
डॉ० पं० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य इस शताब्दीके जैन-दर्शन और न्याय-शास्त्रके महान विद्वान थे। वे विलक्षण और बहुमुखी प्रतिभाके धनी थे। ज्ञान-पिपासु और विद्याके व्यसनी इस व्यक्तिका सम्पूर्ण जीवन ही ज्ञान-गरिमाकी कहानी है । पंडितजीने अनेक ग्रन्थोंका सम्पादन किया, दार्शनिक ग्रन्थोंकी सरल, सबोध भाषामें टोकाएँ की और मौलिक ग्रन्थोंका सर्जन कर सरस्वतीके भण्डारको श्रीवृद्धि की। उनकी दृष्टि खोजी थी। वाराणसीके प्रख्यात स्याद्वाद महाविद्यालयमं न्यायशास्त्रके प्राध्यापकके रूपमं पंडित महे को उस समयके जैनदर्शनके महान् विद्वान् पं० कैलाशचन्दजी शास्त्रीका सानिध्य मिला। सोने में सुगन्धकी
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