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१४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
खतौलीमें एक संगोष्ठीमें हम दोनों पहुँचे थे। वहां उन्होंने एक द्रावक घटना सुनाई। बोले'कोठियाजी, दैवको कैसी विचित्रता है कि मसहरीके लिए एक बांस खरीदकर लाया था। पर वह बाँस मसहरीके काम तो नहीं आया, किन्तु पत्नीकी अर्थीके हेतु वह आया। इससे लगा कि कभी-कभी पुरुषार्थ दैवके आगे घुटने टेक देता है । पंडितजीको अन्तिम समयमें डॉक्टरेट और प्रोफेसरके पदोंकी उपलब्धि हुई थी। पर वे दोनोंका उपभोग नहीं कर सके । यह देवकी ही विचित्रता है । उत्कृष्ट क्षयोपशम के धनी • डॉ. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य, सागर
प्रतिभाशाली एवं उत्कृष्ट-क्षयोपशमके धनी पं० श्री महेन्द्रकुमारजीने वाराणसी पहुँचनेका अच्छा उपयोग किया। अध्ययन करने वाले छात्रोंको वाराणसी सर्वोत्तम स्थान है। यहाँ रहकर उन्होंने न्यायशास्त्रका सर्वाङ्गीण अध्ययन कर न्यायाचार्य परीक्षा उत्तीर्ण की। श्री सुखलालजी संघवीके सम्पर्क में रहकर सम्पादन कलाका अनुभव प्राप्त किया और उसके फलस्वरूप सर्वप्रथम प्रमेयकमलमार्तण्डका एक सुसम्पादित संस्करण प्रकाशित कराया । एम. ए. परीक्षा पासकर डॉ० की उपाधि प्राप्त को ।
भारतीय ज्ञानपीठकी स्थापना भी उसी समय हुई थी। उसके आप प्रमुख सम्पादक हुए और अपने कार्य-कालमें अनेकों ग्रन्थ सम्पादित कर तथा अन्य विद्वानोंसे सम्पादित कराकर मतिदेवी ग्रन्थमालासे प्रकाशित कराये । साहित्याचार्यकी परीक्षा देनेके लिये मैं वाराणसी जाता था तब आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता होती थी।
एक बार सागरमें मध्य प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलनका अधिवेशन था। उसकी दर्शन-परिषदमें विद्वानोंको आमन्त्रित करनेका दायित्व मुझपर था। उसमें पं० महेन्द्रकुमारजी को भी मैंने आमन्त्रित किया था। उसी समय मैंने भगवज्जिनसेनाचार्य विरचित आदिपुराणका अनुवाद पूर्ण किया था। भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित करानेके लिये मैंने चर्चा की तो उन्होंने स्वीकृति देते हुए कहा कि आप पाण्डुलिपि लेकर कुछ दिनोंके लिये वाराणसी आ जाइये । प्राचीन प्रतियोंसे पाठभेद लेकर आधनिक रीतिसे सम्पादि उनके कहे अनुसार मैं १८ दिन वाराणसो रहा । उस समय ज्ञानपीठका कार्यालय दुर्गाकुण्ड वाराणसीमें था। वहाँ आदिपुराणकी १२ प्रतियाँ एकत्रित थीं। अनेक विद्वानोंके साथ बैठकर मैंने पाठभेद लिये । पंडितजीने सब प्रकारकी सुविधा प्रदान की। उनकी सम्मतिसे भारतीय ज्ञानपीठने दो भागोंमें आदिपुराण प्रकाशित किया। फिर सम्पर्क बढ़नेसे मेरे अन्य ग्रन्थ-उत्तरपुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण, गद्यचिन्तामणि, पुरुदेवचम्पू, जीवन्धरचम्पू, धर्मशर्माभ्युदय आदि प्रकाशित हुए । मेरा शोध प्रबन्ध "महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन' भी वहाँसे प्रकाशित हुआ।
मैं उनके प्रति कृतज्ञ हैं कि उन्होंने मझ सम्पादन कला सिखाकर इस दिशामें आगे बढ़ाया। पं० महेन्द्र कुमारजीके द्वारा सम्पादित राजवार्तिक, तत्त्वार्थवृत्ति आदि अनेक ग्रन्थ दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों समाजोंमें श्रद्धाके साथ पढ़े जाते हैं। वे स्पष्ट वक्ता थे। सत्य बातको कहने में कभी चूकते नहीं थे। अल्प आयुमें ही उनका जीवन समाप्त हो गया यह दुःख की बात रही।
उनका अभिनन्दन उनके जीवनमें नहीं हो सका। जब वे थे तब विद्वानोंके अभिनन्दनकी परम्परा नहीं चली थी। जब परम्परा चाल हुई तब तक जनता उन्हें भूल गयी। हर्षकी बात है कि पूज्य उपाध्याय ज्ञानसागरजी महाराजका इस ओर लक्ष्य गया और उन्होंने जनताको सम्बोधित कर स्मृति-ग्रन्थ प्रकाशनकी योजना बनवाई। इस सन्दर्भ में मेरी विनयाञ्जलि समर्पित है।
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