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प्रगतिशील विचारधारा के पोषक
• पं० बलभद्र जैन, दिल्ली
डॉ० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यका स्मरण आते ही आँखोंके आगे एक भारी भरकम व्यक्तित्व उभर उठता है, जिसने कट्टर ब्राह्मण विद्वानोंको संस्कृतकी कथित नगरी वाराणसी में अपनी प्रज्ञा और वैदुष्यसे मुग्ध और प्रभावित कर लिया था। एक बार विख्यात विद्वान् राहुल सांकृत्यायनने जैन दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाणका खण्डन कर दिया, तब न्यायाचार्यजी ने युक्ति और प्रमाणों द्वारा उसका जो उत्तर दिया, दार्शनिक जगतमें उसकी बड़ी सराहना हुई थी और राहुलजीने प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी संघवी से कहा था कि अगर यह युवा विद्वान् यूरोपमें हुआ होता तो इसे नोबिल पुरस्कार प्राप्त हुआ होता । इसकी युक्तियों में प्रौढ़ता है, इसके तर्कोंमें पैनापन है और इसकी विषय-प्रतिपादनकी शैली प्रभावक है ।
१ / संस्मरण : आदराञ्जलि : १५
इस घटना के बाद तो विद्वज्जगत् में न्यायाचार्यजीने बहुत उच्च स्थान बना लिया । पं० सुखलालजी संघवी अपने समय के शीर्षस्थ जैन विद्वान् थे । उनके दो शिष्य ऐसे थे, जो प्रथम पंक्तिके विद्वानों में गिने जाते थे - उसमें एक थे प्रो० दलसुख मालवणिया और दूसरे थे प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यं । ये दोनों ही विद्वान् बड़े उदार थे, व्यवहार कुशल थे, प्रगतिशील विचारधारा के थे, गुणग्राही भी थे । संभवतः इसी कारण न्यायाचार्यजी की ख्यातिसे ईर्ष्या करनेवाले कुछ लोगोंने यह उड़ा दिया कि न्यायाचार्यजी दूसरे कैम्प में चले गये हैं, उन्होंने भी संघवीजी के व्यक्तित्वसे प्रभावित होकर अपनी मान्यता छोड़ दी है । एकबार डॉ० हीरालालजी के सम्बन्धमें भी ऐसी ही हवा चली थी । किन्तु दोनों ही बार यह मिथ्या निकला | दोनों ही विद्वान् जीवन भर निष्ठा पूर्वक प्राचीन आर्ष ग्रन्थों पर काम करते रहे । और दुरूह ग्रन्थोंको सरल और सुबोध बनानेका सतत प्रयत्न करते रहे । न्यायाचार्यजी का यह स्मृति ग्रन्थ भले ही विलम्ब से ही सही, कृतज्ञ समाजकी कृतज्ञताका सही प्रमाण है ।
हमें यह गौरव अनुभव करनेका अधिकार है कि न्यायाचार्यजी हमारे जीवन काल में हुए और उन्होंने अपनी प्रतिभासे जैनदर्शनको चिरजीवी बना दिया ।
हार्दिक शुभकामना
• पद्मश्री बाबूलाल पाटोदी, इन्दौर
विद्वान् थे कि उनकी कृतियोंका आज भी कोई मुकाबला वाङ्गमयका अपितु बौद्ध धर्मपर भी अनुसंधान एवं शोध अपने छोटेसे यशस्वी जीवनमें समाजने उनको परखा नहीं, मुझे स्मरण है राष्ट्रसंत आचार्य श्री विद्यानंदजी महाराज
डॉ० महेन्द्रकुमार जैन एक ऐसे प्रतिष्ठित नहीं है । आदरणीय डॉक्टर सा० ने न सिर्फ जैन करके उस साहित्यका भी पूरा आलोड़न किया । वे तो ऐसे रत्न थे, जो सदियोंमें एक होते हैं । का वर्षायोग इन्दौरमें हो रहा था, उनके प्रवचनके मध्य जब यह दुःखद समाचार आया कि श्री महेन्द्रकुमार जी नहीं रहे, कुछ क्षणों के लिए वे अवाक् रह गये । पश्चात् करीब ४० मिनट डॉक्टर सा० की बहुमूल्य कृतियोंपर हो उन्होंने सारभूत प्रकाश डाला। मुझे आज भी याद है कि उनके शब्द थे – “जैन वाङ्गमयका उदित हो रहा सूर्य राहुके द्वारा असमय डस लिया गया ।"
किसी भी महान् विद्वान्के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना समाजका धर्म है। उनकी स्मृतिमें जो ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है वह पंडितजीके कृतित्वको पुनः समाजके सामने लावेगा ।
मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ ।
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