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________________ उस १० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ सृजनात्मक प्रतिभा के धनी • पं० बंशीधर व्याकरणचार्य, बीना पं० महेन्द्रकुमारजी पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने क्रमबद्ध पर्यायकी मान्यताको कल्पित कहा था। प्रत्येक वस्तुकी स्व-प्रत्यय पर्याय क्रमबद्ध होते हुए भो स्व-परप्रत्यय पर्याय निमित्तानुसार ही होती है और निमित्त एवं निमित्तोंका बदलाव क्रम तथा अक्रम दोनों प्रकारसे प्राप्त होता है। जैसे जीवकी अनादि कालसे जो स्वपर प्रत्यय पर्यायें होती है वे निमित्तके अनुसार भी होती हैं और निमित्तोंके बदलावके कारण भी होती हैं। पं० महेन्द्रकुमारजी नये चिन्तनके पण्डित थे, वे परम्परा पण्डित नहीं थे। उन्होंने १९३० में इन्दौर से न्यायतीर्थ ( दि०) किया था और स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसीमें जैनदर्शनके अध्यापक हो गये थे । यह उनके गौरवकी बात थी। स्याद्वाद महाविद्यालयमें अध्यापक होना गौरव समझा जाता था। उस समय विद्यालयमें शास्त्री और आचार्य कक्षाओंमें पढ़नेवाले बड़े-बड़े छात्र थे। उन्होंने भी प्राचीन न्याय लेकर न्यायाचार्य किया। यहाँके अध्ययन-अध्यापन और सम्पादनके वातावरणको देखकर वे भी ग्रन्थ-सम्पादनके कार्य में जुट गये । फलतः तत्त्वार्थवार्तिक, तत्त्वार्थवृत्ति, न्यायकुमुदचन्द्र, अकलंकग्रन्थत्रय, न्यायविनिश्चय-विवरण आदि ग्रन्थोंका उन्होंने वैज्ञानिक एवं नव्य पद्धतिसे सम्पादन किया। 'जैनदर्शन' जैसी स्वतन्त्र एवं मौलिक कृतिका सर्जन भी किया । अनेक शोध-खोजके आलेख भी 'अनेकान्त' आदि पत्र-पत्रिकाओंमें लिखे । वास्तवमें पं० महेन्द्रकुमारजी एक सृजनात्मक प्रतिभाके अद्भुत धनी थे । परिनिष्ठित विद्वान् • डॉ० मङ्गलदेव शास्त्री न्यायाचार्य आदि पदवियोंसे विभूषित प्रो० महेन्द्रकुमारजी अपने विषयके परिनिष्ठित विद्वान् हैं । जैनदर्शनके साथ तात्त्विक दृष्टिसे अन्य दर्शनोंका तुलनात्मक अध्ययन भी उनका एक महान वैशिष्टय है। अनेक प्राचीन दुरुह दार्शनिक ग्रन्थोंका उन्होंने बड़ी योग्यतासे सम्पादन किया है। ऐसे अधिकारी विद्वान का कृतित्व 'जैनदर्शन' राष्ट्रभाषा हिन्दीके लिए एक बहुमल्य देन है। हम हृदयसे उनका अभिनन्दन करते हैं। -जैनदर्शन ( प्राक्कथन ) २०-१०-५५ अद्वितीय विद्वान् • पं० दलसुख मालवाणिया, अहमदाबाद पण्डित श्री महेन्द्रकुमार अपने समयके अद्वितीय विद्वान् थे। उन्होंने अकलङ्कग्रन्थत्रयसे प्रारम्भ करके अकङ्ककके मलग्रन्थोंका टीकाके साथ जो सम्पादन किया है वह उन्हें अमर बनाने वाला है। बनारस यनिवर्सिटीमें मेरी जैनदर्शनके प्राध्यापक रूपमें नियुक्ति हई । जब शास्त्रीके पाठय क्रममें जैन और बौद्ध ग्रन्थोंका अभाव सा था। अतएव मैंने यूनिवर्सिटीको निवेदन किया कि जैनदर्शनके लिए मेरी नियक्ति है तो बौद्ध ग्रन्थोंको पढ़ाने के लिए अन्य विद्वानकी नियुक्ति जरूरी है। तब यूनिवर्सिटीमें पं० महेन्द्रकुमारजीको बौद्धदर्शनके प्राध्यापक पर नियुक्ति हुई । और हम दोनों साथी बन गए। पं० महेन्द्रकुमारजी बड़े उत्साही थे। अतएव यूनिवर्सिटीके सब प्रकारसे संगठनोंमें उनका मार्गदर्शन अनुपम रहा है । और उनकी आकस्मिक मृत्यु भी उनके ऐसे संगठनोंमें भाग लेने पर हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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