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१ / संस्मरण : आदराञ्जलि :९ मेरी यह मूर्ति सहन नहीं कर सकेगी । और जब उन्होंने चौबीस तीर्थंकरोंको भक्तिमें विभोर होकर स्वयंभूस्तोत्र" की रचना की और भगवान् चन्द्रप्रभकी भक्ति पढ़ते हुए उस मूर्तिको नमस्कार किया तो वह महादेवजीकी पिण्डी ऊपरसे फट गई और उसमेंसे उनकी जिनभक्तिकी दृढ़ताके प्रभावसे चन्द्रप्रभ भगवान्की मति प्रकट हई । जो उनके नमस्कारको झेल सकी । इस प्रकार उनकी इस बनावटी दशामें भी उनके सम्यक्त्वकी दृढ़ताके आधार पर होनेवाली यह घटना सर्वत्र प्रकाशित हुई और लोगोंने जैनधर्मको ग्रहण किया।
यह घटना केवल कपोल कल्पना नहीं है । किन्तु यथार्थ सत्य है जिसके प्रमाण स्वरूप काशीमें आज भी वह मति "फटे महादेव" के नामसे स्थित है और बादमें यह कल्पना उसके बादके लोगोंने कर ली कि ये पहले "स्फटिकमणि' के रहे होंगे । परन्तु कालान्तरमें शब्द बोलते वे फट महादेवके नामसे शब्दोंमें कहे जाने लगे । परन्तु यह कल्पना ही मिथ्या है। जिसका प्रमाण उस महादेवजीकी पिंडोका फटा हुआ भाग घटनाकी यथार्थ सत्यताको स्वयं प्रकट करता है।
इस प्रकार स्वामी समन्तभद्रने अपने युगमें अपनी श्रद्धा और आचरण तथा वृद्धिंगत तर्क विद्याके आधार पर न केवल जैन सिद्धान्त की बल्कि उसके आचार की भी प्रतिष्ठा की। आचार्य समन्तभद्र तथा जिनभद्रगणी की सेवाओंसे उस समय जैनधर्मकी प्रतिष्ठा हुई थी।
इस युगमें काशी नगरी नैयायिकों की सुप्रसिद्ध नगरी है जहाँ पर दर्शनशास्त्रके विभिन्न मतोंके विद्वान् रहते हैं उनके परस्पर शास्त्रार्थ चला करते हैं। इस युगमें जैन विद्वानोंमें पं० महेन्द्रकुमारजी जैसे विद्वान् "प्रकाशमय नक्षत्र"के रूपमें आये जिन्होंने सभी दर्शनोंका गहरा अध्ययन किया और जैनधर्म पर किये जाने वाले विविध विद्वानों आक्षेपोंको अनेकान्त शैलीसे निराकरण किया। जैनतत्वकी प्रतिष्ठापना विद्वत् समाजमें की।
'जैनदर्शन' ग्रन्थमें बारह अधिकार हैं इनमें से प्रथम अधिकारमें ग्रन्थकी पृष्ठभूमि लिखी गई तथा दूसरे अधिकारमें विषय परिचय दिया गया। तीसरे अधिकारमें जैनदर्शनने भारतीय दर्शनको अनेकान्त दर्शनका परिचय कराया।
प्रत्येक धर्ममें लोक व्यवस्था तत्त्व, व्यवस्था अपने-अपने ढंगकी पायी जाती है साथ ही उस तत्त्वोंकी सिद्धिके लिए प्रमाण व्यवस्था भी सुनिश्चित रूपसे की जाती है इसलिए ग्रन्थमें भी जैनमतके अनुसार लोक व्यवस्था तथा उसमें पाये जाने वाले द्रव्यों तथा तत्त्वोंकी व्यवस्थाका वर्णन चार-पांच-छ:-सात अध्यायमें किया गया है। इन सबका विवेचन करने वाले प्रमाणों और नयोंका विचार आठ, नौ और दस अध्यायमें किया गया है।
इन अध्यायोंमें आर्हत मतकी मान्यताके अनुसार प्रमाणोंके आधार पर उक्त व्यवस्थाएँ तो सिद्ध की ही गई है साथ ही अन्य दर्शनोंमें की गई लोक और तत्त्व व्यवस्थाका परीक्षण भी किया गया है।
जैनदर्शनकी भारतीय संस्कृतिको यह बहुत बड़ी देन है कि इसने वस्तुके विशाल स्वरूपकी विविध दृष्टिकोणोंसे [ नयोंकी दृष्टिसे ] देखने की प्रेरणा दी हैं । इसलिए ग्रन्थ के अन्तमें ११ और १२ अध्यायमें विश्वशांति और जैनदर्शनका सम्बन्ध स्थापित करते हुए जैन दार्शनिक साहित्यका भी परिचय दिया है।
वस्तुतः अपने छोटेसे जीवनमें पं० महेन्द्रकुमारजीने इतना बड़ा कार्य किया है । वे दार्शनिकोंकी शृंखलामें एक प्रकाशमान नक्षत्रकी तरह उदित हुए, पर शीघ्र ही अस्त हो गए इस बातका दुःख सदा रहेगा। -कटनी, अप्रैल १९९५
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