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२८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ वह मानते थे। फिर भी अपने भाषणों और लेखोंके द्वारा वह अपने विचार बराबर प्रकट करते रहते थे और अवसर पर चकते नहीं थे। उनकी धार्मिक श्रद्धा कोई गहरी नहीं थी किन्तु जिनवाणीके उद्धार और जैनसंस्कृतिके अभ्युत्त्थानके प्रति उनकी अभिरुचि अत्यन्त गम्भीर थी।
पिछले दिनों वाराणसीमें सर्व वेदशाखा सम्मेलन का आयोजन हुआ था। और उसमें वेदविरोधी विद्वानोंको भी बोलने के लिये आमन्त्रित किया था। प्रवाससे लौटने पर मुझे ज्ञात हुआ कि पं० महेन्द्रकुमारजीने वेदके अपौरुषेयत्वके विरोधमें उसमें संस्कृतमें बोला। संस्कृत विश्वविद्यालयमें उनके पहुँच जानेसे जैन संस्कृतिको अवश्य ही बल मिलता इसमें सन्देह नहीं है । किन्तु दुःख यही है कि असमयमें ही और वह भी अचानक ही उनका हमसे सदाके लिये वियोग हो गया।
आज हमारे लिये वाराणसी सूनी हो गई है। मिले हुए बहुत दिन हो जाते थे तो मिलनेकी प्रतीक्षा करते थे। अब इस प्रतीक्षाका कभी अन्त होने वाला नहीं है। अपनी इन्हीं आँखोंके सामने उन्हें चितामें जलते देखा है फिर भी हृदय चाहता कि यह मति एक बार किसी तरहसे देखनेको मिल जाये । मिलने पर इधर-उधरकी समाजकी कितनी बातें और विचार-विमर्श होता था। अब वह सौभाग्य कभी प्राप्त नहीं होगा।
ऐसे वियोगके समयमें विवेक ज्ञान भी साथ नहीं देता। मनुष्य यह सोचकर अधीर हो उठता है कि जो चला गया वह अब कभी भी देखनेको नहीं मिलेगा । जब हम मित्रोंकी यह दशा है तो उनके कुटुम्बियोंकी खास करके उनकी वृद्धा माता और समझदार बड़े पुत्रके दुःखकी तो थाह ही नहीं मिल सकती । हम उनसे हार्दिक समवेदना प्रकट करते हुए भगवान् जिनेन्द्रदेवसे यहो प्रार्थना करते हैं कि महेन्द्रकुमारजी अपने सद्गुणोंको लेकर पुनः जैनकुल में जन्म लें और अपने इस जीवनके शेष बचे कार्योंको पूर्ण करें। दि० २८ मई १९५९ के 'जैन संदेश'से साभार
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