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डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य द्वारा प्रतिपादित नियतिवाद :
एक समीक्षा
•प्रो० रतनचन्द्र जैन, भोपाल
माननीय डॉ० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य प्रथम जैन पण्डित थे जिन्होंने जैन पाठशालाओं और महाविद्यालयोंकी सीमासे बाहर जाकर विश्वविद्यालयमें प्राध्यापकका पद सुशोभित किया और जैनदर्शनके अध्ययन-मनन और शोधको विश्वविद्यालयीन आयाम दिया। न्यायाचार्यजी जैन न्यायशास्त्रके पारंगत विद्वान थे । उन्होंने प्रायः सभी प्रमुख जैन न्यायग्रन्थों जैसे न्यायकुमुदचन्द्र, न्यायविनिश्चयविवरण, अकलङ्कग्रन्थत्रय, प्रमेयकमलमार्तण्ड और सिद्धिविनिश्चयटीकाके सम्पादन एवं प्रस्तावनालेखनका यशस्कर कार्य किया है। इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थवार्तिक और तत्त्वार्थवृत्ति को भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना एवं हिन्दीसार द्वारा अत्यन्त उपयोगी बना दिया है । 'जैनदर्शन' उनकी वह यशस्वी कृति है जो हिन्दी में सर्वप्रथम लिखी गई और जिसमें जैनइतिहास, जैनसिद्धान्त, जैनन्याय और जैनाचारका सरल भाषामें संक्षिप्त एवं उच्चस्तरीय प्रतिपादन किया गया है। डॉक्टर साहबकी यह कृति जैन एवं जैनेतर जिज्ञासुओंके लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है।
न्यायविद्यामें न्यायाचार्यजीको आधुनिक युगका अकलंक कहें तो अत्युक्ति न होगी। वर्तमान कालमें डॉ० राधाकृष्णन्, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, प्रो० बलदेव उपाध्याय आदि अनेक जैनेतर विद्वानोंने स्याद्वादको अत्यन्त भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याएँ की थीं। न्यायाचार्यजीने उन सबका युक्तिपूर्वक खण्डन कर स्याद्वाद की समीचीनता स्थापित करनेका सराहनीय कार्य किया। इतना ही नहीं, कालदोषसे जैनसमुदायमें भी कुछ ऐसे विद्वान अस्तित्वमें आये जिनके मस्तिष्कने सर्वज्ञोपदेशके विपरीत एकान्तवादी मान्यताओंका अन्धकार उगला । इससे न्यायाचार्यजी अत्यन्त पीडित हुए और उन्होंने अमोघ युक्तियों तथा ज्वलन्त आगम प्रमाणोंसे इन विपरीत मान्यताओंका जोरदार खण्डन किया जिसके दर्शन तत्त्वार्थवृत्तिकी प्रस्तावनामें किये जा सकते हैं।
कुछ विद्वानोंने नियति-अनियति, निमित्त-उपादान, व्यवहारधर्मकी हेयोपादेयता, व्यवहारनयकी भूतार्थता-अभूतार्थता आदि अनेक सिद्धान्तोंके विषयमें एकान्तवादी मान्यताएं प्रचलित की हैं । तत्त्वार्थवृत्तिको प्रस्तावनामें इन सबकी शवपरीक्षा की गई है । जीवकी समस्त पर्यायोंको क्रमबद्ध या नियत माननेकी जो एकान्तवादी मान्यता प्रचलित की गई है उसकी न्यायाचार्यजीने विस्तारसे परीक्षा की है । वह बतलाती है कि यह मान्यता कितनी पथभ्रष्ट करनेवाली है। न्यायाचार्यजीने अपने निष्कर्ष में लिखा है कि नियतिवाद ईश्वरवादसे भी ज्यादा खतरनाक है । ईश्वरवादमें कर्मोंका फल ईश्वरके अधीन है, किन्तु अच्छे-बुरे कर्म करना मनुष्यके अधीन हैं । नियतिवादमें तो 'अच्छे-बुरे कर्म भी मनुष्यके अधीन नहीं हैं, क्योंकि वे क्रमबद्ध हैं, पूर्वनियत हैं ( पृष्ठ ४८ )।
न्यायाचार्यजीने क्रमबद्ध पर्यायवादकी जो शवपरीक्षा की है उसका मैंने भी गहराईसे अनुचिन्तन किया
झे न्यायाचार्यजीका कथन शतप्रतिशत समीचीन प्रतीत हआ है। इस मान्यतासे श्रद्धा कितनी विपरीत और जीवन कितना अकर्मण्य हो जाता है तथा यह सर्वज्ञोपदेशके कितने खिलाफ हैं इसका मैंने जो चिन्तन किया है उस पर संक्षेपमें प्रकाश डाल रहा हूँ।
क्रमबद्धपर्यायवाद प्रतिपादित करता है कि प्रत्येक द्रव्यकी सभी पर्याय क्रमबद्ध हैं। अर्थात् किस द्रव्यकी कब क्या अवस्था होती है यह पूर्वनिर्धारित है। उसका स्थान भी निर्धारित है, काल भी निर्धारित है, साधन-सामग्री भी निर्धारित है, पुरुषार्थ भी निर्धारित है। अतः जिस द्रव्यकी, जिस स्थानमें, जिस
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