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२ / जीवन परिचय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व : २७ विनिश्चयटीका अकलंकदेवके मल ग्रन्थ सिद्धिविनिश्चयका उद्धार किया। उसी परसे उन्हें पिछले ही दिनों हिन्दू विश्वविद्यालय से पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त हुई। और इस तरह जैन विद्वानोंमें वह प्रथम डॉक्टर हुए । आगामी जुलाई मासमें उनकी नियुक्ति संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में जैनदर्शन और प्राकृतके अध्यक्ष पद पर होनेवाली थी । आजकल वह उसी की तैयारीमें व्यस्त थे। हिन्द विश्वविद्यालय छोड़ने पर नये निवासस्थान की व्यवस्था करना आवश्यक था। उसीके सम्बन्ध १४ मई को दिनके १० बजे शहरमें एक मकान देखकर लौटे और ११ बजेके लगभग पक्षाघात का आक्रमण हो गया ।
पक्षाघातसे पीडित अनेक रोगी हमारे सामने ही अच्छे हुए है और आज मजे में हैं। हमें आशा थी कि वह भी स्वस्थ हो जायेंगे किंतु दसरे आक्रमणने उन्हें हमसे सदाके लिये छीन लिया। यह उनके कुटम्ब पर और जैनसमाज पर अनभ्र वज्रपात है। कल तक उनके जो बच्चे सनाथ थे आज वे अनाथ जैसे हो गये हैं । माता वृद्धा है--एक लड़का और दो लड़कियाँ दस वर्ष की अवस्थासे अन्दरके एकदम शिश हैं। एक बड़ा लड़का इस साल इंजीनियरिंगमें प्रवेश लेगा । किंतु आज उन सबके सन्मुख घोर अंधकार जैसा उपस्थित है, क्योंकि पं० महेन्द्रकुमारजी कोई धनी पंडित नहीं थे। हाँ, आगे अब यह आशा थी किंतु वह आशा तो उनके साथ ही चली गई । यह तो उनके कुटुम्ब की दशा है ।
उधर जैनन्याय का आज उनके जैसा अधिकारी विद्वान् कोई दृष्टिगोचर नहीं होता जो उनका भार सम्भालने की योग्यता रखता हो । दर्शनके प्रायः सभी प्रमुख ग्रन्थों का उन्होंने पारायण कर डाला था। न्याय, वैशेषिक, मांख्य, योग, मीमांसा, बौद्ध सभी दर्शनोंके ग्रन्थ उनके दृष्टिपथसे निकल चुके थे। और संपादनकलाके तो वह आचार्य हो गये थे । दि० जैनसमाजमें आज न वैसा कोई दार्शनिक नहीं है और न सम्पादक । उनको विशेषताएँ उनके साथ चली गई। विद्यानन्दिस्वामी की अष्टसहस्री और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक जैसे महान दार्शनिक ग्रन्थ सिद्धि विनिश्चयके ढंग पर प्रकाशन की प्रतीक्षामें है। हम सोचा करते महेन्द्रकुमारजीके द्वारा एक-एक करके इन सबका उद्धार हो जायेगा। किंतु हमारा सोचना भी उनके साथ ही चला गया। आज जैनसमाज लाख रुपया भी खर्च करे तो दूसरा पं० महेन्द्रकुमार पैदा नहीं कर सकता। आजके युगमें जब संस्कृत पढ़नेवाले भी दर्शन की ओरसे मुख मोड़ रहे हैं तब ऐसे विद्वानके उत्पन्न होने का स्वप्न देखता भी नासमझी है । इसलिये रह-रह कर क्रूर काल पर क्रोध आता है और आता है अपनी बेबसी पर रोना । कहाँसे लायें हम पं० महेन्द्रकुमार जैसा विद्वान् ।
प्रत्येक व्यक्तिमें गुण भी होते है और दोष भी । पं० महेन्द्रकुमारजीमें भी दोनों ही थे । किंतु उनके जैसा अध्यवसायी, उनके जैसा कर्मठ और उनके जैसा धुन का पक्का व्यक्ति होना कठिन है। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था--'स्वकार्य साधयेत् धीमान्' 'बुद्धिमान का कर्तव्य है कि अपने कार्य की सिद्धि करे ।' यही उनका मलमन्त्र था। उन्होंने अपने इस मूलमन्त्र के सामने आपत्ति-विपत्तियों को कभी भी परवाह नहीं की, बुराई-भलाइयों की ओरसे आँखें मूंद लीं । जब जहाँ जैसे भी अपने कार्य में सफलता मिले तब वहाँ तैसे उसे प्राप्त करके ही वह शान्त होते थे । और किसीके साथ बुराई पैदा होने पर भी उससे अपना संबंधसे विच्छेद नहीं करते थे। समय पर उससे मिलने जाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता था। और इस तरह मिलते थे, मानो कोई बात ही नहीं है।
उनके जीवनमें जो उतार-चढ़ाव आये वह मेरी स्मृतिमें आज भी मौजूद हैं। और उन्होंने अपने मलमन्त्र को दृष्टिमें रखते हुए विष को अमृत की तरह पी लिया, यह भी मैं जानता हूँ। उनके विचार बहत उदार थे। किन्तु सामाजिक सम्बन्धों के प्रति भी उनकी आस्था थी। और सामाजिक सम्बन्धके महत्त्व को
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