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प्रथमप्रकाश.
४१ ज्ञानरूपीसूर्य" तेमने प्रगट थयो. तेज वखते अति गरदीनेलीधे परस्पर विमानोने घसता चोस इंसो पण देवोना समूहसहित त्यां श्रावी पहोंच्या. वली ते वखतें वायु कुमारोए,त्रण लोकना स्वामिना समवसरणना स्थानकने साफ कर्यु. वली मेधकुमारोए गंधोदकथी ( चंदनादियुक्त सुवासित जल) पृथ्वीने सिची, तथा ऋतुर्जए पण पृथ्वीपर धुंटणसुधि पुष्पो पाथर्या. वली त्यां अग्निकुमारोए स्निग्ध डे धूपनी शिखाउँ जेमां, तथा आकाशमंडलने पण सुगंधि करनारी धूपघटिकार्ड बनावी. पनी इंसादिक देवोए, नाना प्रकारना मणि आदिकनी कांतिथी, सेंकडो इंजधनुष्वायूँ जाणे होय नहीं, ए, समवसरण बनाव्यु. वली त्यां जुवनपति ज्योतिषी, तथा वैमानिक देवोए बनावेला, रूपा, सोना तथा माणिकना गढो शोजवा लाग्या. " था मार्ग स्वर्गमां जाय , श्रा मार्ग मोक्षमा जाय बे," एवं जाणे प्राणिउँने कहेती होय नहीं, एवी रीतें उबलती धजा त्यां शोजती हती. गढपर रहेली रत्नमय विद्याधरी (पुतलीरूप) जाणे देवोए (सजासदोना) नहीं मावानी शंकाथी श्राववा न दीधीयो हाय नहीं तेवीयो शोजती हती. वली ते प्रत्येक गढमां, जाणे चार प्रकारना धर्मने क्रीडा करवाना जरूखाउँ ज होय नहीं, एवा चचार दरवाजाउँ शोजता हता.वली ते समवसरणमां देवोए,जाणे त्रण रत्नोना (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) उदयने करतुं होय नहीं, एवं त्रण कोश ऊंचुं अशोकवृक्ष बनाव्यु. तेनी नीचे पूर्व दिशामां देवोए, वर्गलमीना सारसर पादपीठसहित रत्नसिंहासन बनाव्यु. पनी प्रजु पूर्वधारथी प्रवेश करीने, तथा तीर्थने नमस्कार करीने, सूर्य जेम पूर्वाचलपर, तेम (अज्ञानरूपी)अंधकारनो नाश करवामाटे सिंहासनपर बेग. तेज वखतें देवोए, प्रज्जुनां बीजां त्रण रूपो, बीजी त्रणे दिशामा रत्नना सिंहासनपर बेठेलां बनाव्यां. नीचं करेल ने पूर्णिमाना पूर्ण चंजनुं पण मंडल जेणे, तथा त्रण लोकोना स्वामिपणाना चिह्न सरखा प्रजुना मस्तकपर त्रण बत्रो शोजवा लाग्यां "एकज श्रा प्रनु स्वामी " एवा हेतुथीज जाणे झें उनो कर्यो होय नहीं, एवो प्रजु श्रागल रत्नध्वज शोचवा लाग्यो. वली केवलज्ञानियोमा चक्रवर्तिपणाने सूचवनारूं, तथा अति अनुत प्रजाववा, धर्मचक्र प्रजुपासे शोजवा. लाग्यु. वली जाणे प्रजुना मुखरूपी क