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________________ HRIRA M AILER 14./ - नानीमरण, सुताजन्म, पुत्रवधु आगौन । तीनों कारण एक दिन, भए एक ही भौन ॥ विवाह के पश्चात इन्होंने फिर पढ़ना प्रारम्भ किया और व्याकरण, छन्द, ज्योतिप, अलंकार आदि विषयों का अध्ययन किया । कविका सम्पूर्ण जीवन एक साधारण गृहस्थके जीवनके समान रहा । व्यापारमें उन्हें कभी सफलता नहीं मिली और जो भी कार्य किया उसीमें घाटा लगा। कभी कभी तो उन्हें खानेको भी नहीं मिला । लेकिन वे विपत्तियोंसे कभी नहीं घबराये और जीवनमें आगे बढ़ते रहे । कविने जीवन में तीन विवाह किये । इनके ९ सन्तान हुई लेकिन दुर्भाग्य वश एक भी जीवित नहीं रही। कही पचावन बरस लो, बनारसी की बात । तानि विवाही भारजा, सुता दोइ सुत सात ॥ नौ बालक हुए मुए, रहे नारि नर दोइ । ज्यौं तरवर पतझार , रहै ह्रठ से होइ ॥ कविका गाहस्थ जीवन पूर्ण असफल होनेके वावजूद भी इनका साहित्यिक जीवन इतना सुन्दर, सफल एवं शान्त रहा कि जो भी कविके सम्पर्क में एक बार आया वही पूरी तरह से उनका हो गया । कविके धीरे धीरे प्रशंसक बढ़ने लगे और अन्तिम वर्षों में नो वे राष्ट्र एवं समाजके प्रमुख व्यक्ति बन गये । इनकी प्रथम रचना 'नवरस रचना' १४ च वर्षमें ही समाप्त हो गयो थी । यह शृगारकी एक अच्छी कृति थी। लेकिन कविने विवेक जाग्रत होने पर इसे सदाके लिये गोमती नदीको भेंट कर दिया, जिससे न बचे वांस और न बने बासुरी । ' इस घटनाके पश्चात् इनका जीवन ही बदल गया । संवत् १६७० में जब ये २५ वर्षक थे, इन्होंने नाममालाके नामसे छोटा सा पद्य शब्दकोश लिखा । हिन्दी में इस तरहकी इनी गिनी रचनाये हैं। समयसार नाटक इनका सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसके प्रत्येक छन्दसे अध्यात्मरस टपकता है । इसमें ७२७ पद्य हैं। इसे कविने संवत् १६९३ में समाप्त किया था । समयसार पूर्णतः आध्यात्मिक रचना है । यद्यपि यह कृति आचार्य अमृतचन्द्र के कलशोंका भाषान्तर है, लेकिन कविकी मौलिक सूझ-बूझ एवं काव्य. प्रतिभाके कारण यह स्वतंत्र कृतिके रूपमें मानी जाने लगी है । समयसार नाटकका प्रचार इतना शीघ्र हुआ कि. ९-१० वर्षमें ही इस कृतिकी प्रति लिपियां सारे भारतमें पहुँच गई और आज उत्तर भारतका ऐसा कोई शास्त्रभण्डार नहीं होगा जहां इसकी एक दो हस्त लिखित प्रतियां न हों। किसी किसी प्रथसंग्रहालयमें तो इसकी १५-२० तक प्रतियां मिलती हैं जो इसकी लोकप्रियताकी घोतक हैं। कविकी तीसरी रचना बनारसीविलास है । इसमें इनकी स्फुट रचनाओंका संग्रह है । संग्रहकर्ता कविके परम मित्र जगजीवन थे। उन्होंने इसे संवत १७०१ में संग्रह करके
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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