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________________ । कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ आवार्य समन्तभद्र ___ दिगम्बर जैन परम्परामें आचार्य कुन्दकुन्दके पश्चात् यदि किसी आचार्यको बहु मान मिला तो समन्तभद्रको ही मिला । जैसे आचार्य कुन्दकुन्दको जैन अध्यात्मका प्रवक्ता होनेका गौरव प्राप्त है वैसे ही आचार्य समन्तभद्रको स्याद्वाद मार्गके संरक्षक और जैन शासनके प्रणेता होने का गौरव प्राप्त है। उत्तरकालोन ऐसे विरल ही दिगम्बर जैन ग्रन्थकार हुए हैं, जिन्होंने अपने ग्रन्थके प्रारम्भमें समन्तभद्रका स्मरण न किया हो, कवि नागराजने तो समन्तभद्र भारती की स्तुतिमें एक स्तात्र ही रच दिया है। प्रत्येक स्मरणमें समन्तभद्रकी गुणगरिमाका अपूर्व गान प्रतिध्वनित है। कविवर नागराजने समन्तभद्रभारतीका स्तवन करते हुए लिखा है-- मातृ-मान-मे यसिद्धिवस्तुगोचरां स्तुवे सप्तभङ्ग-सप्तनीति-गम्यतत्त्वगोचराम् । मोक्षमार्गतद्विपक्ष-भूरिधर्मगोचरामाप्ततत्त्वगोचरां समन्तभद्रभारतीम् ।। प्रमाताको सिद्धि और प्रेमयकी सिद्धि जिसकी विषय है, जो सप्त भंग और सप्त नयोंसे जानने योग्य तत्त्वोंको अपना विषय किये हुए है. जो मोक्षमार्ग और उसके विपरीत संसारमार्ग सम्बन्धी प्रचुर धर्मों के विवेचनको लिये हुए है और आप्ततत्त्वका विवेचन-आप्तमीमांसा जिसका विषय है उस समन्तभद्रभारतीका मैं स्तवन करता हूं। + समन्तभद्रने अपने आप्तमीमांसा नामक ग्रन्थ के द्वारा आप्तकी मीमांसा करते हुए समस्त एकान्तवादोंका निरसन करके अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा की है। उनके इस प्रकरण पर ही अकलंकदेवने अष्टशती और आचार्य विद्यानन्दिने अष्टसहस्रीकी रचना की है। आचार्य समन्तभद्रके न तो पितृकुलका ही कोई स्पष्ट उल्लेख मिलता है और न गुरुकुलका ही। स्वयं उनके ग्रन्थों में उनकी कोई प्रशस्तियां उपलब्ध नहीं होती। आप दक्षिणके निवासी थे। अतः आपकी शिक्षा या तो उरैयूरमें हुई थी, या कांची अथवा मदुरामें । ये तीनों ही स्थान उस समय विद्याके खास केन्द्र थे। मुनिदीक्षा लेने के पश्चात् आपको भम्मकव्याधि होगई और इस लिये आपने अपने गुरुस सल्लेखना धारण करनेकी प्रार्थना की। किन्तु गुम्ने जिनशासनकी सुरक्षाकी भावनासे समन्तभद्रको सल्लेखना धारण करनेकी आज्ञा नहीं दी। तब समन्तभद्रने अपने रोगके शमन के लिय दिगम्बर मुनिवेषको छोड़कर अन्य वेष धारण किया। राजावलिकथेके अनुसार समन्तभद्र मणुवकहल्लीसे चलकर कांची पहुंचे और वहां शिवकोटि राजाके शिवालयमें जाकर उसे आशीर्वाद दिया और कहा कि मैं तुम्हारे इस नैवेद्यको शिवार्पण करूंगा। यह कहकर उस नवेद्यक साथ मन्दिर में चले गये और द्वार वन्द कर लिया, और सब भोजन स्वयं कर गये। यह देखकर राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ ! अगले दिन उसने और भी अधिक उत्तम भोजन भेट किया। धीरे धीरे जठराग्निके उपशान्त होते जानेसे भोजन शेप बचने लगा। इससे राजाको सन्देह हुआ। राजाने एक दिन मन्दिरको अपनी सेनासे घिरवाकर दरवाजेको खोल डालनेकी Barouliteracinhindin
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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