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________________ - (CMOMENTS NISHAD उन्हें सी मन्धरस्वामीके समवसरणमें जाकर साक्षात् दिव्याध्वनि श्रवण करनेका उल्लेख किया है। कुन्दकुन्दके सम्बन्धमें जो कथाएं प्राप्त हैं उनमें भी यह बात कही गई है। आगे एक कथा दी जाती है 'मालवा देशके वारापुर नगरमें कुन्दश्रेणीके पुत्रका नाम कुन्दकुन्द था। एक दिन उस बालकने उद्यानमें बैठे एक मुनिराजको देखा। मुनिराज उपदेश दे रहे थे। बालकने उनका उपदेश बड़े ध्यानसे सुना और वह उनका शिष्य हो गया। उस समय उसकी अवस्था केवल ग्यारह वर्षकी थी। मुनिराजका नाम जिनचन्द्र था। उन्होंने तेबोस वर्षकी उम्रमें कुन्दकुन्दको आचार्यपद प्रदान किया। एकबार आचार्य कुन्दकुन्दको जैन तत्त्वज्ञानके सम्बन्धमें कोई शंका उत्पन्न हुई। उन्होंने ध्यान करते समय सुन्दर मन वचन कायसे श्रीमन्दिर स्वामीको नमस्कार किया। उन्हें सुनाई दिया की समवसरण में विराजमान श्रीमन्दिर स्वामीने उन्हें आशीर्वाद दिया ‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु' । समवसरणमें उपस्थित श्रोताओंको बड़ा अचरज हुआ कि इन्होंने किसको आशीर्वाद दिया है, क्यों कि वहाँ उन्हें नमस्कार करनेवाला कोई दिखाई नहीं दिया। तब श्रीमन्दिर स्वामीने बत लाया कि उन्होंने भारतवर्षके कुन्दकुन्द मुनिको आशीर्वाद दिया है। दो चारण मुनि जो पूर्व जन्ममें कुन्दकुन्दके मित्र थे। कुन्दकुन्दको श्रीमन्दिर स्वामीके समवसरण में ले गये। जब वे उन्हें आकाश मागसे ले जाते थे तो कुन्दकुन्दकी मयूरपिच्छिका गिर गई । तब कुन्दकुन्दने गृद्धके पंग्योंसे काम चलाया । कुन्दकुन्द वहाँ एक सप्ताह रहे और उनकी शंकाएं दूर होगई। लौटते समय वह अपने साथ एक पुस्तक लाये थे, वह समुद्रमें गिर गई। बहुतसे तीर्थों की यात्रा करते हुए वे भारतवर्प लौट आये और उन्होंने धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया । सातसौ स्त्री-पुरुषोंने उनसे दीक्षा ली। कुछ समय पश्चात गिरिनार पर्वत पर श्वेताम्बरोंसे उनका विवाद हुआ। तब ब्राह्मी देवीने मध्यस्थ बन कर यह स्वीकार किया कि दिगम्बर निर्मन्थमार्ग ही सच्चा है। अन्तमें अपने शिष्य उमास्वामी (गृद्धपिच्छ) को आचार्यपद प्रदान करके वे स्वर्गवासी हुए। इन्हीं उमास्वामी महाराजने तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की और उसके दस अध्यायोंमें जीवादि सात तत्त्वोंका विवेचन किया। प्रत्येक मुमुक्षु भाईको इस तत्त्वार्थसूत्रको भी, जिसका दूसरा नाम मोक्षशास्त्र है, अवश्य पढ़ना चाहिये। क्योंकि जैसे समयसारको जाने बिना सात तत्त्वोंका यथार्थ बोध नहीं होता वैसे ही तत्त्वार्थसूत्रको जाने बिना तत्त्वज्ञानकी पूर्ति नहीं होती। इसी तत्त्वार्थसूत्र पर पूज्यपाद स्वामीने सर्वार्थसिद्धि नामकी व्याख्या, अकलंकदेवने तत्त्वार्थराजवार्तिक और विद्यानन्दि स्वामीने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक जैसे जैनदर्शनके महान् ग्रन्थोंकी रचना की है। उसीके 'प्रमाणनयैरधिगमः' सूत्र पर समस्त दिगम्बर जैन दर्शनशास्त्र और न्यायशास्त्रकी रचना हुई है।
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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