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________________ MASTERESTHA DRO N EWSPAPER प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान ओर आलोचना अध्यात्मरत्न श्री रामजी माणिकचन्दजी दोशी, एडवोकेट, सोनगढ़ आत्माके अबन्ध दशाके प्राप्त होने में स्वरूपस्थितिरूप चारित्रका जो स्थान है, उसके अंगभूत निश्चय प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचनाका उससे कम स्थान नहीं है । कालादि भेदकी विवक्षा किये विना देखा जाय तो निश्चय प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना ही चारित्र है। ये तीनों स्वयं निश्चय चारित्रस्वरूप हैं, उससे भिन्न नहीं । ऐसे निश्चय प्रति क्रमणादिस्वरूष सम्यक्चारित्रकी प्राप्तिके लिए सर्व प्रथम अनादि बन्धनबद्ध इस संसारी जीवको कर्म, नोकर्म और कर्मों को निमित्तकर होनेवाले भावोंसे भिन्न अबन्धम्यभावी आत्मा का स्वानु भूतिम्वरूप सन्यज्ञान होना ही कार्यकारी है। उसके विना स्वरूपस्थितिरूप चारित्र और उसके अंगभूत निश्चय प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचनाकी प्राप्ति होना अति असम्भव है । कदा चिन् कोई अज्ञानी जीव आत्मम्वरूपका सम्यक् निर्णय हुए विना बाह्य में मोह और कपायकी मन्दतावश बाह्य संयमरूप द्रव्यचारित्रको स्वीकार भी करता है तो उसका फल अनन्त संसारकी प्राप्ति ही है। ऐसे जीवको निश्चय प्रतिक्रमण आदिरूप भावसंयमकी प्राप्ति होना तो ऐसे ही असम्भव है जैसे बन्ध्याको सुतकी प्राप्ति होना असम्भव है । वास्तवमें ऐसा द्रव्यप्रतिक्रमण अप्रतिक्रमण ही है, क्योंकि विना निश्चयके जो भी व्यवहार होता है वह सच्चा व्यवहार इम संज्ञाको नहीं प्राप्त होता । आचार्य कुन्दकुन्दने ऐसे व्यवहारप्रतिक्रमणको विष. कुम्भ कहा है सो उमका कारण भी यही है, क्योंकि भेदज्ञानका सम्यक् अभ्यास हुए चिना म्वम्पम्थितिम्प चारित्र और उसके अविनाभावी प्रतिक्रमण आदिकी इस जीवमें पर्याययोग्यता ही उत्पन्न नहीं होती । भेदज्ञानका अभ्यास होने पर ही यह जीव मोह और क्षोभ (कषाय)से रहित समपरिणामरूप चारित्रका अधिकारी होता है और तभी इसके सम्यक् प्रतिक्रमणरूप आभ्यन्तर-बाह्य क्रियाका उपाय बनता है । यह वस्तुस्थिति है। इसके प्रकाशमें यहाँ स्वरूपस्थितिरूप चारित्रके अविनाभावी प्रतिक्रमणादिके यथार्थ स्वरूप पर सम्यक् प्रकाश डाला जाता है। यद्यपि जिनागममें संयमके सरागसंयम ( व्यवहारचारित्र) और वीतराग संयम (निश्चय चारित्र) के समान उसके अविनाभावी प्रतिक्रमण आदिके भी दो-दो भेद बतलाये हैं। परन्तु जिस प्रकार संयममें वीतराग संयमकी मुख्यता है, क्योंकि 'सम् ' अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक जो स्वरूप स्थितिरूप चारित्र होता है वही आत्माके लिए हितरूप है, अतएव वही उपादेय है। उसके सद्भावमें राग पर्यायरूप जो पाँच महाघ्रतोंका धारण करना आदिरूप सरागसंयम कहलाता है वह न तो आत्माके लिए हितरूप ही है और न उपादेय ही है, क्योंकि रागषर्यायरूप होनेके कारण वह तो एक मात्र कर्मबन्धका ही कारण है । सरागसंयमके कालमें यद्यषि संवर-निर्जरा mer C
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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