SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ NARTS KHAND RAINBA NEHA सी कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ के है । उनका पुरुषार्थ उनमें पाई जानेवाली सामर्थ्य है । परिणमन करनेकी ऐसी सामर्थ्य सब द्रव्योंमें होती है । इसी सामर्थ्यको ध्यान में रखकर आचार्योंने यह वचन कहा है-'न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते ।' जिसमें जो शक्ति न हो वह अन्यके द्वारा नहीं की जा सकती । अब रही निमित्तोंकी वात-सो यदि निमित्तोंके बलसे अन्य द्रव्यों में अन्यथा परिणमन हो सकता है तो फिर न तो पुरुषार्थकी ही बात करनी चाहिए और न मुक्तिकी ही, क्योंकि 'जब जैसे निमित्त मिलते हैं उनके अनुसार दूसरे द्रव्यको बलात् परिगमनां पड़ता है ' इम सिद्धान्तके मान लेने पर न तो पुरुषार्थ ही सिद्ध होता है और न मुक्ति ही बनती है। तव तो प्रत्येक द्रव्यका परिणमन मात्र निमित्तोंके आधारसे स्वीकार करना पड़ता है। स्पष्ट है कि यह मान्यता भी अज्ञानमूलक है, वस्तुस्वरूपका अनुसरण करनेवाली नहीं। अतएव यही मानना उचित है कि प्रत्येक द्रव्यका प्रति समय जो भी कार्य होता है वह स्वभाव, उपादान निमित्त, पुरुषार्थ और स्वकाल इन पाँचके समवायमें ही होता है। इससे प्रत्येक द्रव्यकी प्रत्येक पर्याय स्वकाल में क्रमबद्ध होकर भी पुरुषार्थपूर्वक ही होती है यह सिद्ध हो जाता है। इसी तथ्यको सम्यक् प्रकारसे ध्यानमें रखकर पण्डितप्रवर बनारसीदासजीने नाटक समयसारके सर्वविशुद्ध ज्ञान भधिकार में कहा है पदस्वभाव पूरवउदय निहिचै उद्यम काल । पच्छपात मिथ्यात पथ सरवंगी शिवचाल || परमार्थदृष्टिसे विचारकर देखा जाय तो क्रमबद्ध पर्यायोंको स्वीकार करनेका सिद्धान्त एक ऐसा अनूठा सिद्धान्त है जिससे परमें इष्टानिष्ट बुद्धिका अभाव होकर म्वभावके अनुरूप अनन्त पुरुषार्थ प्रगट होता है। सच मानिये, संसारी जीवोंके द्वारा इसका म्वीकार वीतगगताकी जननी है। यह व्यक्तिविशेषकी कल्पना न होकर वस्तुम्वरूपके अनुरूप जिनागमका सार है, जिसे तीर्थंकरोंकी वीतरागमयी वाणीमेंसे सम्यग्दृष्टि महापुरुषोंने मन्थन कर विश्वके सामने रख दिया है। वे करुणाभावसे पुकार-पुकार कर कहते हैं-आओ, हे भव्य जीवो! आओ, जिनागमका मन्थन कर उसमेंसे यह अमृत उत्पन्न किया है। इसका पानकर स्वयं अमृत बनो। SAR AOOR FARPANTHEMRANEPA L
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy