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________________ 6 कानजी स्वामि- अभिनन्दन ग्रंथ जो आत्मपरिणतिको कर्मचेतना और कर्मफलचेतनारूप न स्वीकार कर मात्र ज्ञानचेतनारूप अनुभवता है वह अन्तरात्मा है । अन्तरात्मा के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन भेद हैं। इन तीनोंमें ज्ञानचेतनारूप अनुभवन क्रियाकी समानता होने पर भी वीतराग परिणतिकी वृद्धिके कारण ही ये तीन भेद हुए हैं । उत्तरोत्तर कषाय हानिके साथ सविकल्प परिणतिकी विचित्रता देखकर बाह्यमें उसके आधारसे यद्यपि उनको अवरित सम्यग्दृष्टि, देशविरत और सकलविरत ऐसा नामकरण किया जाता है पर अन्तरंग में इसका मूल कारण वीतराग परिणतिकी वृद्धि ही है । परमात्माका अर्थ स्पष्ट ही है । जिसमें कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाका सर्वथा अभाव होकर जो मात्र ज्ञानचेतनाका भोक्ता है वह परमात्मा है । मोक्षमार्ग में यह परम साध्य होनेसे परम आदरणीय माना गया है। किन्तु ध्येयकी दृष्टिसे एकमात्र त्रिकाली ज्ञायकभाव ही परम आदरणीय हैं, क्योंकि उपयोगमें उसका आश्रय लेनेसे ही उससे अभिन्न ( तादात्म्यभावको प्राप्त ) अन्तरात्मदशाके बाद क्रमसे परमात्मदशा प्रगट होती है । इस प्रकार मुनिधर्म और गृहस्थधर्म क्या है इसका संक्षेपमें विचार किया । क्रमबद्ध पर्याय और पुरुषार्थ श्री पं. रतनचन्दजी शास्त्री, न्यायतीर्थ, विदिशा जो उत्पाद, व्यय और धौत्र्यसे युक्त है वह द्रव्य है । द्रव्यके इस लक्षणके अनुसार अपने त्रिकाल अन्वयरूप धर्मके द्वारा ध्रुव रहना जैसे प्रत्येक द्रव्यका स्वभाव है उसी प्रकार अपने व्यतिरेकरूप धर्मके द्वारा उत्पाद-व्ययरूपसे परिणमना भी उसका स्वभाव है । यह वस्तुस्थिति है । इसे ठीक तरहसे हृदयंगम करनेपर विदित होता है कि प्रत्येक द्रव्यमें प्रति समय जो नई पर्यायका उत्पाद और पुरानी पर्यायका व्यय होता है वह उसकी योग्यतासे ही होता है, अन्यथा उत्पाद-व्यय द्रव्यका स्वभाव नहीं ठहरता । प्रभाचन्द्र आचार्यके सामने यह प्रश्न आया कि कार्य कारणका जब कोई उपकार नहीं करता ऐसी अवस्था में कारण प्रतिनियत कार्यको ही क्यों उत्पन्न करता है, सब कार्यों को क्यों नहीं उत्पन्न करता ? तब उन्होंने योग्यताको इसका प्रधान कारण बतलाया। उनका वह वचन इस प्रकार है तत्रापि हि कारणं कार्येणानुपक्रियमाणं यावत् प्रतिनियतं कार्यमुत्पादयति तावत्सर्वं कस्मान्नोत्पादयतीति च योग्यतैव शरणम् । प्रमेयकमलमार्तण्ड २,७ पृ. २३७ इसका यह तात्पर्य है कि प्रत्येक द्रव्यमें प्रति समय जो कार्य होता है वह उस काल में उसमें जैसे कार्यको उत्पन्न करनेकी योग्यता होती है उसीके अनुरूप होता है । अब यदि इस
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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