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________________ AND RANDONATABASATIRE - MANTRA WR लेता है, स्वाध्यायमें काम आनेवाले एक-दो शाखोंको छोड़कर अधिक शास्त्रांका संग्रह नहीं करता, यात्रादिके बहाने मोटर, गाड़ी या अन्य किसी प्रकारके परिग्रहको प्राप्त करनेकी चेष्टा नहीं करता और न उनको प्राप्त करनेका उपदेश ही करता है, गर्मी, सरदी और वर्षाजन्य बाधाको दूर करनेके साधनोंको परिग्रहमें परिगणित करके उनका भी उपयोग नहीं करता, गृहस्थों और गृहस्थस्त्रियोंके साथ धर्मोपदेश देने तक ही सम्पर्क रखता है, पन्थसम्बन्धी प्रवृत्तिविशेषको प्रोत्साहन नहीं देता, भगवान् मर्वज्ञ वीतराग द्वारा प्रतिपादित वचनको ही आगम मानता है, स्त्रियाँ गुरु मानकर मुनिक शरीरकी वैय्यावृत्य नहीं कर सकती, यह कथा तो दूर रहो, वे जिन प्रतिमाका भी स्पर्श नहीं कर सकतीं और न अभिषेक कर सकती हैं, क्योंकि आगममें गणिनीको भी आचायसे कमसे कम पांच हाथ दूर बैठने का निर्देश है, वे सम्मुख होकर आचार्यसे धर्मकथा भी नहीं कर सकती । यह आगमका अभिप्राय है। इसे ध्यानमें रखकर जो आयिका या श्राविकाके साथ किसी भी प्रकारका वार्तालाप नहीं करता और न वेय्यावृत्य कराता है वही २८ मूलगुणोंका सम्यक् प्रकारसे पालन करनेका अधिकारी माना गया है । जिसके भावलिंगके साथ उक्त प्रकारका द्रव्यलिंग पाया जाय वहीं मोक्षमार्गका साक्षात् अनुसर्ता मुनि होता है, अन्य नहीं, क्योंकि भावलिगक अभावमें द्रव्यलिंगकी मोक्षमार्गमें कोई कीमत नहीं। यह संक्षेपमें मुनिधर्म है । जो पूरी तरहसे मुनिधर्मको पालनेमें असमर्थ है और जिसके दो कपायोंका अभाव होकर म्वरूपस्थिनिरूप निश्चय चारित्रके साथ पांच अणुव्रत, तीन गुणवत और चार शिक्षाव्रत यह बारह प्रकारका सविकल्परूप बाय चारित्र हता है उसके जिनमतमें गृहस्थधर्म माना गया है। ग्यारह प्रतिमाएँ आन्तरिक शुद्धिकी वृद्धि के साथ इन्हीं वारह बातोंका परिवर्धित रूप हैं । मुनिधर्मके सन्मुख हुग भव्यको क्रमशः उनकी प्राप्ति होती है, क्योंकि ऐसा नियम है कि जिमकं चित्नमें संसार, शरीर और भोगोंके प्रति संवेग और वैराग्य होकर मुनिधर्मको अंगीकार करनेका भाव होने पर भी जो उसे स्वीकार करनेमें असमर्थ है उसीके गृहस्थधर्म होता है । इसके अधिकारी मनुष्योंके समान तिर्यश्च भी माने गये हैं। यह तो मानी हुई बात है कि मोक्षमार्ग में प्रथम स्थान सम्यग्दर्शनको प्राप्त है, क्योंकि 'दसणमूलो धम्मो' सम्यग्दर्शन धर्मका मूल है एसा जिनवचन है । अतएव जो सम्यग्दृष्टि है उसके ही जब पंच परमेष्ठीको छोड़कर लोकमें प्रसिद्ध शासनदेवता आदि अन्य किसीके प्रति आदर-अनुग्रहका भाव नहीं होता, जो आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन और शंकादि आठ दोषोंसे सर्वथा रहित होकर निशंकित आदि आठ अंगोंका सम्यक् प्रकारसे पालन करता है । ऐसी अवस्थामें जो प्रती गृहस्थ है उसके सविकल्प दशामें मात्र पाँच परमेष्ठीका ही आश्रय रहे, वह शासनदेवता आदिका आदर-सत्कार न करे और न करनेका उपदेश करे यह स्पष्ट ही है। आगममें आत्माके तीन स्तर बतलाये हैं-यहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । जो घरमें एकत्वबुद्धि करता है और परसे अपना हानि-लाभ मानता है वह बहिरात्मा है। तथा
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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