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________________ JHARKHAND HARMA KHARESM9VORI PORARMirmire कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ - यदि इनमेंसे एक भी कारण न हो तो कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । जैसे समुद्र में जल तो है पर उसे जब तक वायका योग नहीं मिलता तब तक तरंगें नहीं उठतीं। या वायुका योग तो है पर शीतका योग पाकर समुद्रका जल यदि बर्फ बन गया है तो भी तरंगें नहीं उठती। स्पष्ट है कि प्रत्येक कार्य तभी होता है जब दोनों कारणोंका योग होता है, किसी एकके अभावमें नहीं, अतः प्रत्येक कार्य के प्रति दोनों कारणोंकी मुख्यता है, किसी एककी नहीं। ___ समाधान यह है कि प्रत्येक कार्य प्रत्येक द्रव्यकी एक पर्याय है, अतः जैन सिद्धान्तके नियमानुसार जिस द्रव्यकी जो पर्याय होती है वह उसीका कार्य होता है । तत्त्वार्थसूत्रमें इसी तथ्यको ध्यान में रख कर 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत ॥२९।। सद्व्य लक्षणम् ॥३०॥' इन सूत्रोंकी रचना हुई है। इसी तथ्यको ध्यानमें रख कर आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसारमें कहते हैं अपरिच्चत्तसहावेणुप्पाद-वय-धुवत्तसंजुत्तं । गुणवं च सपज्जायं तं दव्वं ति बुच्चति ॥ जो अपने स्वभावको न छोड़कर उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्वसे संयुक्त है तथा गुण-पर्वायवाला है उसे द्रव्य कहते हैं ॥ यह प्रत्येक द्रव्यका स्वरूप है। इसके अनुसार प्रत्येक द्रव्यका कार्य उसकी पर्यायरूप ही होता है, अन्य द्रव्यकी पर्यायरूप नहीं। अतः प्रत्येक कार्यकी उत्पत्तिमें जिनके साथ उसकी बाह्य व्याप्ति है एसे अन्य एक या एकसे अधिक द्रव्योंकी पर्यायोंमें निमित्त व्यवहार होने पर भी यथार्थमें उनसे उस कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती यह सिद्ध होता है। स्वामी समन्तभद्रने इसी तथ्यको ध्यानमें रख कर यह वचन कहा है कि 'सब कार्योंमें बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता होती है यह द्रव्यगत स्वभाव है।' यहाँ आचार्य समन्तभद्रके इसे द्रव्यगत स्वभाव कहनेका आशय यह है कि प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समयमें परिणमनशील है। अतः उसका प्रत्येक समयमें स्वभावरूप या विभावरूप कोई न कोई परिणाम अवश्य होता है। ऐसा तो है नहीं कि द्रव्यके परिणमनशील होने पर भी जिस समय निमित्त नहीं मिलते उस समय उसका परिणाम रुक जाता हो, उत्पाद व्ययके सिद्धान्तानुसार द्रव्य प्रत्येक समयमें परिणमन भी करता है और प्रत्येक समय में जब जब एक परिणामका व्यय करके जिस दूसरे परिणामको वह उत्पन्न करता है तब तब उस परिणामके साथ उसकी अन्तर्व्याप्ति भी रहती है। यह अन्तातिका नियम है। बाह्य व्याप्तिका नियम भी इसी प्रकार है। अर्थात् प्रत्येक द्रव्यका प्रत्येक समयमें जब जय परिणमनरूप जो कार्य होता है तब तब अन्य एक या एकसे अधिक दो आदि द्रव्योंकी जिन पर्यायोंके साथ उस कार्यकी बाह्य व्याप्ति होती है वे पर्याय भी उस समय अवश्य होती हैं। कार्यके साथ अन्तर्व्याप्ति और बाह्य व्याप्तिके स्वीकार करनेका यही तात्पर्य है। इन दोनोंके एक कालमें होनेका नियम है और यह तभी बन सकता है जब इसे द्रव्यगत म्वभाव स्वीकार किया जाय। इसलिए किसी एक द्रव्यका कार्य उससे भिन्न दूसरे
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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