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अन्य द्रव्यमें विवक्षित कार्य हुआ है उसे भी तो यथार्थ कारण कहना चाहिए। उसे यथार्थ कारण मानने में हिचक कैसी ?
समाधान यह है कि जिस बाह्य सामग्रीके सद्भावमें विवक्षित कार्य होता है वह स्वयं तो उस कार्यरूप व्यापार करता नहीं। किन्तु जब अन्य द्रव्यमें विवक्षित कार्य होता है तव उससे भिन्न बाह्य सामग्री अपना दुसरा कार्य करती है। जैसे जब छात्र श्रवण कार्य करता है तब अध्यापक सुनानेकी इच्छा तथा वचन और कायगत चेष्टा करता है। ऐसा तो है नहीं कि छात्र और अध्यापक दोनों ही मिलकर एक द्रव्यगत श्रवणरूप व्यापार में उपयुक्त होते हों। यही कारण है कि प्रकृतमें अध्यापकके सुनाने की इच्छा आदिको यथार्थ कारण न कह कर निमित्त (उपवरित) कारण कहा है। विवक्षित बाह्य सामग्रीके सद्भावमें या उसे लक्ष्य कर वह कार्य हुआ इसलिए तो उसे निमित्तरूपसे कारण कहा गया पर वह स्वयं उस कार्यरूप परिणत नहीं हुआ, इसलिए उसमें वह कारणता उपचरित मानी गई। इसीका नाम असद्भूत व्यवहार है। विवक्षित कार्य होते समय ऐसा व्यवहार तो अवश्य होता है पर वह निश्चयस्वरूप (उपादानउपादेयरूप) न होने के कारण असद्भूत ही होता है।
अब प्रश्न यह है कि यह व्यवहार असद्भुत ही सही पर यदि ऐसा व्यवहार न हो तो क्या निश्चयम्वरूप उपादान कारण उपादयरूप ( कार्यरूप) परिणत हो सकता है। यदि नहीं, तो ऐसे व्यवहारको भी यथार्थ कारण क्यों नहीं माना जाता । उदाहरणार्थ माना कि समुद्र ग्वयं लहररूप परिणत होता है । किन्तु उसका यह कार्य विशिष्ट वायुका योग मिलने पर ही होता है । जब जब समुद्रको विशिष्ट वायुका योग मिलता है तब तब समुद्र तरंग रूपसे परिणन होता है और जब वायुका योग नहीं मिलता तब उसका तरंगरूप कार्य भी नहीं देखा जाना । अतः कार्यकी उत्पत्तिमें जैसे उपादानका होना आवश्यक है उसी प्रकार निमित्तका योग मिलना भी आवश्यक है । इसलिए जसे यह माना जाता है कि यदि उपादान कारण न हो तो कार्य नहीं होता वैसे यह मानना भी उपयुक्त है कि यदि निमित्त कारण न मिले तो भी कार्य नहीं होता । इसलिए जिसप्रकार कार्यकी उत्पत्तिमें उपादान कारण मुख्य है उसीप्रकार उसमें निमित्त कारणको भी मुख्यता मिलनी चाहिए। कार्यमें दोनोंकी मुख्यता है इस विषयको स्पष्ट करते हुए श्री हरिवंशपुराणमें कहा है
सर्वपामेव भावानां परिणामादिवृत्तयः ।
स्वान्तर्वहिःनिमित्तेभ्यः प्रवर्तन्ते समन्ततः ॥सर्ग ७ श्लो. ५॥ सभी पदार्थोके परिणाम आदि वृत्तियाँ अपने अन्तरंग निमित्त (उपादान) और बहिरंग निमित्तोंसे सब प्रकारसे प्रवर्तित होती हैं ।।७-५।।।
तात्पर्य यह है कि कोई कार्य हो और उसका निमित्त न हो ऐसा तो है नहीं। अतएव प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति आभ्यन्तर और बाह्य दोनों प्रकारके कारणोंसे माननी चाहिए ।
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