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निमित्त - नैमित्तक सम्बन्ध
श्री लालचन्द अमरचन्दजी मोदी राजकोट
आत्माका परदार्थ के साथ भले ही कर्ता-कर्म सम्बन्ध न हो, परन्तु निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध तो है न ? ऐसा प्रश्न भी उत्पन्न होता है ।
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व्याप्यव्यापकभाव से आत्मा परपदार्थका कर्ता हो तो तन्मयपनेका प्रसंग आता है और जो निमित्त - नैमित्तिकभावसे परपदार्थका कर्ता बने तो नित्यकर्तृत्वका दोष आता है, इसलिए निमित्तकर्ता भी नहीं है ।
आत्मा जब स्वयं ज्ञातास्वभावसे च्युत होता है तब रागादि विकारभावरूप परिणमता है । उस समय उस नैमित्तिकरूप रागको स्वस्वभावका आश्रय नहीं है, किन्तु कर्म आदि परपदार्थका आश्रय होता है । इसलिए जिसके आश्रय से लक्ष्यसे विकार होता है उस पदार्थको निमित्त कहने में आता है । ( प्रत्येक परपदार्थ में स्वभावसे तो ज्ञेयपना है । ) रागादि विकार स्वभावको भूलनेसे उत्पन्न होता है ऐसा न मानकर कर्मके उदयसे विकार होता है ऐसा माननेवाला निमित्तनैमित्तिकसम्बन्धको भी जानता नहीं, इसलिए उसे आमत्र-बन्धका भी यथार्थ ज्ञान हो सकता नहीं ।
रागादि विकारकी उत्पत्ति कैसे होती है इसकी ही जिसे खबर नहीं है उसे उसकी उत्पत्ति कैसे नहीं होती इसकी खबर कहाँसे हो सकती है । इसलिए सर्व प्रथम रागकी उत्पत्तिका यथार्थ कारण क्या है उसे जानने के लिए एक दृष्टान्त देते हैं
बम्बई नगरी में एक धनाढ्य कुटुम्ब रहता था । उस सेठका पुत्र परदेशमें व्यापार करता था । जिस शहर में व्यापार करता था, उसी शहरमें उसके पिताका मित्र भी रहता था । उसने एकबार बम्बई में रहनेवाले अपने मित्र सेठके नाम पत्र लिखा कि मुझे पचास हजार रुपयोंकी आवश्यकता है सो आप मेरे पास जो जवाहरात और गहने हैं उन्हें गिरवी रखकर रुपया देनेके लिए यहाँ रहनेवाले अपने पुत्रको पत्र लिखनेकी कृपा करना, जिससे वह रकम मुझे यहाँ से मिल जाय ।
उक्त पत्र बम्बईके सेठके पास आनेपर सेठने परदेशमें रहनेवाले अपने पुत्रको लिखा कि मेरा एक मित्र सेठ वहाँ रहता है। उसे काम चलानेके लिए रुपयोंकी आवश्यकता है । सो उसके पाससे जबाहरात और गहने गिरवी रखकर उसके पेढे पचास हजार रुपया ब्याज पर दे देना ।
पिताजीकी तरफसे आये हुए इस पत्रको पुत्रने उतावलीसे पढ़ा । कारण कि उसका सिनेमा देखनेके लिए जानेका समय हो गया था । इसलिए उसने उतावलीमें पत्रका पूर्वार्ध न पढ़कर मात्र उत्तरार्ध पढ़ा और गहने गिरवी रखे बिना पचास हजार रुपया दे दिये ।
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