________________
कानजी स्वामि- अभिनन्दन ग्रंथ
इस प्रकार किसी आत्मा में दोष और आवरणकी पूर्ण हानिकी सिद्धिपूर्वक सर्वज्ञताकी सिद्धि होने पर यह प्रश्न होता है कि अमुक आत्मा में दोष आवरणकी पूर्ण हानि हो गई यह कैसे समझा जाय ? इसके उत्तर में आचार्य समन्तभद्र उसी आप्तमीमांसा में लिखते हैं कि जिसके उपदिष्ट वचनों में युक्ति और शास्खसे बाधा न आवे, समझो वह निर्दोष है। तथा अमुकका वचन युक्ति और शाखसे अविरोधी है यह प्रमाणकी कसौटी पर कसनेसे जाना जा सकता है। स्पष्ट है कि भगवान् अरिहन्त परमेष्ठीके वचनोंमें युक्ति और शास्त्रसे बाधा नहीं आती । इससे ज्ञात होता है कि वे निर्दोष हैं और जो पूर्ण निर्दोष होता है वह सर्वज्ञ होता ही है। उनका वह वचन इस प्रकार है
स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अवरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते || ६ ||
उक्त श्लोक में 'युक्तिशास्त्राविरोधवाक्त्व' हेतुसे निर्दोषता की सिद्धि की गई है और समस्त अरिहन्त परमेष्ठियोंको युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् होनेसे निर्दोष सिद्ध किया गया है। उनके वचन युक्ति और शास्त्रसे अविरोधी इसलिए हैं कि उनके द्वारा प्रतिपादित तत्त्वोंमें प्रमाणसे कोई बाधा नहीं आती है ।
सर्वज्ञता जैनधर्मका प्राण है । आगम और अनुभवसे तो उसकी सिद्धि होती ही है । आचार्य समन्तभद्र युक्ति से भी सर्वज्ञताको सिद्ध कर दिया है । साथ ही उनके परवर्ती अकलंक, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र और अनन्तवीर्य आदि जितने भी दार्शनिक आचार्य हुए हैं उन्होंने भी दृढ़ता के साथ उसका समर्थन किया है ।
सर्वज्ञ है और वह तीन लोक और त्रिकालवर्ती समस्त ज्ञेयोंको युगपत् जानता है यह उक्त rant सार है । वह वर्तमान और अतीतको पूरी तरहसे जानता है और भविष्यको अनिश्चितरूपसे जानता है ऐसा कथन करनेवालोंने वास्तव में सर्वज्ञको ही स्वीकार नहीं किया । और जो सर्वज्ञको स्वीकार नहीं करता वह अपने आत्मा के अस्तित्वको कैसे स्वीकार कर सकता हैं ? आचार्य वीरसेनने धवला पुस्तक १३ में आत्मा पाँच ज्ञानस्वभाव है कि केवलज्ञानस्वभाव है यह प्रश्न उठाकर उसका समाधान करते हुए लिखा है कि वह केवलज्ञानस्वभाव है । सो उनके इस कथनका यह तात्पर्य है कि जिस आत्मामें ज्ञानकी स्वभाव पर्याय प्रगट हो जाती है उसे अज्ञात ऐसा कुछ भी नहीं रहता । वह अतीत और वर्तमानके समान भविष्यको भी समप्रभाव से जानता है ।