SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - EPARANASANAR - तात्पर्य (अ) वीतरागकी सच्ची पूजा सर्व प्रकारके रागादि भावोंका आदर छोड़ कर वीतराग बनने में है (ब) सर्वज्ञकी सच्ची पूजा अल्पज्ञ पर्यायका आदर छोड़ कर सर्वज्ञता प्रकट करने में है। (क) प्रभुकी सच्ची पूजा पामरताका अभाव कर प्रभुता प्राप्त करने में है । जोव और कर्मका सम्बन्ध श्री प्रकाश हितैषी शास्त्री दिल्ली जैन परम्परामें कर्म सिद्धान्तका बड़ा महत्त्व है, क्योंकि जीवकी कर्मसापेक्ष अवस्थाका नाम ही संसार है, ऐसा ज्ञान होनेपर कर्मनिरपेक्ष अवस्था ही मोक्ष है ऐसा ज्ञान सहज हो जाता है । यद्यपि 'कर्म' ऐसा कहने पर 'जो किया जाता है वह कर्म' इस व्युत्पत्तिके अनुमार संसार अवस्थामें जीवके विकारी भाव ही उसके कर्म कहे जा सकते हैं, क्योंकि स्वतन्त्र होकर जीव उन्होंको करता है। किन्तु ऐसा नियम है कि जीवके विकारी भाव करने पर बिनसोपचयरूपसे स्थित कार्मण वर्गणाऐं स्वयं ज्ञानावरणादिरूपसे परिणत होकर आत्माके साथ एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्धको प्राप्त होती हैं । यतः जीवके विकारी भावोंको निमित्त कर कार्मण वर्गमा ज्ञानावरणादिरूपसे परिणत होकर जीवके विकारी मावोंके होनेमें निमित्त होती हैं, इसलिए इन्हें भी आगममें कर्म कहा गया है । इस प्रकार विचार करने पर कर्मके दो भेद हो जाते हैं-भावकर्म और द्रव्यकर्म । कर्मके इन दो भेदोका निर्देश करते हुए द्रव्यसंग्रहमें लिखा है पज्झदि फम्म जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो । फम्मादपदेसाणं अण्णोष्णपवेसणं इदरो ॥३२॥ __ जिन राग, द्वेष, मोहरूप चेतन परिणामों के निमित्तसे झानावरणादि कर्मो का बन्ध होता है वे चेतन परिणाम भाषबन्ध है तथा जड़की और आत्माके प्रदेशोंका परस्पर प्रवेशकर एक क्षेत्रावगाहरूपसे अवस्थित होना द्रव्यबन्ध है । यहाँ पर जड़कर्म और जीव प्रदेशोंका एक क्षेत्रावगाह हो जाने पर भी जड़कर्मका स्वचतुष्टय जड़कर्म में है और आत्माका स्वचतुष्य आत्मामें है । आत्माका एक प्रदेश भी कर्मरूप नहीं होता और जड़फर्मका एक भी परमाणु आत्मारूप नहीं होता । ये दोनों द्रव्य अपने-अपने चतुष्टयमें ही अवस्थित रहते हैं, इसलिए प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समयमें मात्र अपना ही कार्य करता है, अन्यका नहीं यह सिद्ध होता है । आचार्य कुन्दकुन्द इन दोनों में परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभाष है, कर्तृ-कर्मभाव नहीं यह भेद इसी कारणसे करते हुए लिखते हैं H-H in
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy