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________________ र कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ के महान् ज्ञानदीपक हो, दीपकद्वारा आरकी पूजा करते समय मैं भावना भाता हूं कि मेरा छोटासा ज्ञानदीपक सदाकाल अंतरमें प्रकाशमान रहा करो और आपके केवलज्ञानसूर्यसे वह सदा उज्वलित रहा करो। (५) दीपकका प्रकाश अंधकारका नाश करनेवाला है। अंधकारमें पड़ा हुआ पदार्थ और अंधकार एकरूप प्रतिभासित होते हैं। लेकिन प्रकाश होते ही सब पदार्थ भिन्न भिन्न प्रति भासित होने लगते हैं वैसे ही ज्ञानदीपकद्वारा मेरे मोहांधकार-अज्ञानतिमिरका सर्वथा नाश हो और पदार्थका स्वरूप जैसा है वैसा ही मेरे ज्ञानमें प्रतिभासित हो-असी भावना हे भगवन् ! दीपकद्वारा पूजा करते समय मैं भाता हूं। (६) दीपकके निकट कोई पदार्थ हो तो दीपक उसको प्रकाश सके, किंतु दूर हो तो न प्रकाश सके- असा नहीं है, उसी प्रकार हे भगवन् ! दीपकद्वारा पूजा करते समय मैं भावना भाता हूं कि अन्य क्षेय पदार्थ चाहे वे मेरे समीप हों या दूर हों तो भी मैं उनको ज्ञाता होकर सदा जानता ही रहूं, ज्ञेयको भला-बुरा कदापि न मानूं । (५) दीपकके निकट सोनेका ढेर होवे तो उसका प्रकाश बढ़ जावे तथा कोयलेका ढेर होवे तो उसका प्रकाश घट जावे असा कभी बनता नहीं। दीपक तो उन दोनोंको प्रकाशते हैं; उसी प्रकार मेरे ज्ञान दीपकका प्रकाश अनुकूल पदार्थ होवे तो बढ़ जावे और प्रतिकूल पदार्थ होवे तो घट जावे-असा कभी बनता नहीं, इसलिये हे भगवन् ! दीपकद्वारा पूजा करते समय मैं भावना भाता हूं कि सर्व पदार्थों को मैं स्वज्ञान प्रकाशद्वारा जानता ही रहूं; प्रतिकूलतासे मैं दब जाऊं और अनुकूलतासे मैं गर्वित हो जाऊं-असा कभी न बनो। (८) जैसे दीपकका प्रकाश धूमसे-कालिमासे भिन्न है वैसे ही हे भगवन् ! दीपकके द्वारा पूजा करते समय मैं भावना भाता हूं कि मेरा ज्ञानदीपक सर्व प्रकारको मोह-रागद्वेषरूप कालिमासे सर्वदा-सर्वथा भिन्न हो। (९) दीपक स्वभावसे ही स्वपरप्रकाशक है वैसे मेरा ज्ञानदीपक भी स्वभावसे ही स्वपरप्रकाशक है, इसलिये मैं भावना भाता हूं कि मेरा ज्ञानदीपक सदा काल प्रकाशक ही रहो. अन्य पदार्थ वा मोह-राग-द्वेष आदि भावोंका कर्ता न बनो। भगवानकी पूजा करते समय हमारी भावना किस प्रकारकी होनी चाहिये असा दर्शानेके लिये पूर्वोत उल्लेख किया है उसी प्रकार अन्य द्रव्यद्वारा पूजा करते समय भी आत्महितकी भावना करनी चाहिये, तभी हमारी पूजा यथार्थ और सफल बन सकती है। जो जीव अपने शुद्ध स्वरूपमें लीन नहीं रह सकता उसको सर्वज्ञ परमात्माकी पूजा, भक्ति आदिका शुभ भाव आए बिना रहता नहीं । किंतु ज्ञानी समझते हैं कि ये भी पुण्य बंधके कारण हैं, उनका भी अमाव कर जब अपने शुद्ध स्वरूपमें लीनता करूँगा तभी निश्चय भावपूजा होगी और यही धर्म है, इसलिये यही करने योग्य है। । -
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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