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________________ उत्तर यह है कि उपदेश मिथ्या नहीं है । किन्तु ऐसा उपदेश व्यवहार दृष्टिसे किया गया है । व्यवहार दृष्टिसे जो उपदेश किया जाय उसे व्यवहारनयसे असत्य कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इससे निमित्तका ज्ञान हो जाता है । इसीसे ऐसा कथन व्यवहार कथन बोला जाता है । पर पदार्थ हमारे राग-द्वेष परिणामका निमित्त बन जाता है। इसलिए उसके त्यागका उपदेश है । पर इसका यह अर्थ नहीं है, कि निमित्तको ही परमार्थतः कर्त्ता मान लिया जाय । परमार्थतः बन्धका कर्त्ता तो आत्माका विकारी भाव ही है। परके त्यागके मूलमें निजके विकारी भावोंके त्यागका अभिप्राय निहित है । परका स्वीकार ही राग भावसे होता है, अतः परके त्यागके लिए उससे रागभाव हटाना ही होगा। दोनों कथनों में विवक्षाका अन्तर है, परमार्थतः यह आत्मा विकारी भावका हेय जान उससे निवृत्त हो जाय यह उसका तात्पर्य है । अनएव चारित्रका इच्छुक पुरुष वस्तुतः राग-द्वेषको दूर करनेका ही इच्छुक है। वस्तुतः पर-पर है, स्त्र नहीं, अतः स्वका परमें, और परका स्वमें प्रवेश ही नहीं होता, तत्र कर्त्तव्य कैसे होगा । आप अपने विका परिणामके कर्त्ता हैं; उसीसे बंधक हैं । अन्य पदार्थ अपने परिणमनका कर्त्ता है । अपने विकार के त्याग कर स्वरूपमण निश्चयतः चारित्र हैं और परका त्याग व्यवहारतः चारित्र है । अन्तरंग कषायके त्यागसे ही बाह्य चारित्र चरितार्थ है, अन्यथा नहीं । इसका स्पष्टीकरण करते हुए वे लिखते हैं- 'अध्यवसानमेव बंधहेतुः न तु बाह्यवस्तु, तस्य बंधहेतोः अध्यवसानस्य हेतुत्वेन एव चरितार्थत्वात् । किमर्थं तर्हि चाह्मवस्तुप्रतिषेत्रः, अध्यवसानप्रतिषेधार्थः । अध्यवसानस्य बाह्यवस्तु आश्रयभूतं स्यान ।' अध्यवमानभाष ही बंधका कारण है, न कि बाह्य बस्तु | बाह्य वस्तु अध्यवसानभावका निमित्त हो सकता है जो कि बंधका कारण है । प्रश्न- तो बाह्य बस्तुके त्यागका उपदेश क्यों दिया जाता है ? उत्तर - चाह्य बस्तुके त्यागका उपदेश अध्यवसान के प्रतिषेधके लिए दिया जाता है, क्यों कि अध्यवसानकी उत्पत्ति में बाह्य वस्तु आश्रय निमित्त होती है । उक्त कथनसे यद्यपि चारित्रके नाते पर वस्तुके त्यागकी उपयोगिता सिद्ध है पर वह मुक्तिका हेतु नहीं, परका त्याग तो अध्यवसानभावके आश्रय निमित्तको हटानेके लिए है । मुख्यतासे तो अपना अध्यवसान भाष ही दूर करना है जो बंधका साक्षात् हेतु है । बाह्य बस्तुको बंध कारणता हेतुहेतुमद्भावसे है. हेतुभाव से नहीं । इस प्रकार व्यवहार और परमार्थकी स्थितिको ठीक ठीक समझकर जो येन केन प्रकारेण अपने राग-द्वेषादि विकारोंपर विजय प्राप्त कर लेता है वही सच्चा अहिंसक है। स्वामी समन्तभद्रने भी यही कहा है रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः । रागद्वेषनिवृत्ते हिंसादिनिवर्त्तना कृता भवति ||
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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