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________________ f 'अणु अहिंसा' का नाम दिया गया है। जो हिंसा गृहस्थ जीवन में न चाहते हुए भी होती है, उसे कुछ लोग अहिंसाका नाम देते हैं, पर यह सत्य नहीं है। हिंसा किसी भी स्थिति में हिंसा रहेगी, अहिंसा नहीं हो सकती । वह गृहस्थ जीवनकी अशक्यता हो सकती है, पर अहिंसा नहीं । आत्महितके मार्ग में चलनेवाले व्यक्तिके लिए पूर्ण अहिंसाका विधान है । यही राजमार्ग है। इस मार्ग पर चलने में असमर्थ व्यक्तिके लिए गृहस्थधर्मकी एकदेश अहिंसा अपवादमार्ग है | अहिंसा जीवमात्रका स्वभाव है. अतः धर्मकी परिभाषा में उसे पूर्ण स्थान प्राप्त है । प्राणी मात्र यह नहीं चाहता कि मुझे कोई मारे या सतावे, या पीड़ा देवे । तब उसका यह कर्तव्य हो जाता है कि वह दूसरे प्राणियोंके साथ सत्प्रवृत्ति करे। हिंसाका मूल स्रोत अपनी आत्मामें उदित होनेवाले विकारी परिणाम है। क्रोध-लोभ-मोहरूप परिणाम ही असत् प्रवृत्तिका मूल कारण है । असत् परिणाम भावहिंसा और असत् प्रवृत्ति ही द्रव्यहिंसा है । प्राणिवध तो उस हिंसाके फलस्वरूप होता है, अतः प्रमादवश किसी भी प्राणीका घात हो जानेसे यह अनुमान होता है कि प्रवर्त्तककी असत् प्रवृत्ति हुई और असत् परिणाम उस दुष्प्रवृत्तिका कारण है । एक प्रश्न है कि यह जगत् जीवराशिसे भरा हुआ है। इसमें सावधानीपूर्वक कितनी ही प्रवृत्ति क्यों न की जाय, उन अदृष्ट जीवोंकी या अनायास पग आदिके संयोगको प्राप्त हुए जीवोंकी हिंसाको बचाना शक्य नहीं है जो हमारे श्वासोच्छ्वास हाथ-पैर हिलाना भोजनपान आदि क्रिया द्वारा सहज ही मृत्युको प्राप्त हो जाते हैं। यह एक जटिल प्रश्न है जो जगत् के सामने सूर्य प्रकाशकी तरह स्पष्ट है। इसका समाधान भगवान् गृद्धपिच्छने तत्त्वार्थसूत्र में किया है। वे लिखते हैं प्रमत्त योगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा । अपनी असावधानी से जो प्राणघात होता है वह हिंसा है । उक्त कथन द्वारा द्रव्य-भाव दोनों प्रकारकी हिंसाका प्रतिपादन करते हुए भी आचार्यने भावहिंसाको प्रधान या मूलभूत हिंसा स्वीकार किया है । द्रव्य हिसा उसके कारण हिंसा व्यपदेशको प्राप्त होती है। इसलिए सावधानीपूर्वक कार्य करनेवाले साधुके शरीर के निमित्तसे यदि किसी प्राणीकी मृत्यु हो जाय तो उन्होंने साधुको अहिंसक माना है । साथ हो असावधानी करनेवाले असत्परिणामी व्यक्तिके हाथसे एक भी प्राणीको मृत्यु न हुई हो तो भी उसे हिंसक माना हैं। यही कारण है कि साधु आहार-विहार आदि सब प्रकारकी प्रवृत्ति में सावधानी बरतने के कारण अहिंसक है । संसार में जितने देहधारी प्राणी हैं वे सकर्मा होनेसे अपने अपने कर्मके अनुसार देह धारण करते हैं और उसकी अवधि पूर्ण होनेपर उसे त्यागते हैं । जन्म-मृत्युका यह क्रम अनादि है । मृत्युका बाह्य निमित्त कुछ भी हो, वह अनिवार्य है । इस अट
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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