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________________ कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ - एक धर्मकी मुख्यतासे ही वस्तुका कथन करता है; अतः अनेकान्तका सूचक या द्योतक 'स्यान्' शब्द प्रत्येक वाक्यके साथ सम्बद्ध रहता है। उससे सुननेवाले को यह बोध होजाता है कि पता एक धर्मकी मुख्यतासे अनेक धर्मात्मक वस्तुका कथन कर रहा है। अतः अनेकान्तात्मक अर्थको कहनेका नाम स्याद्वाद है । आचार्य समन्तभद्रने स्याद्वादका लक्षण आप्तमीमांसामें इस प्रकार कहा है स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किवृत्तचिद्विधिः । सप्तभङ्गनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ॥ १०४ ॥ कथंचित् आदि स्याद्वादके पर्याय शब्द हैं। यह स्याद्वाद सर्वथा एकान्तवादका त्यागकर अनेकान्तवादको स्वीकार करके हेय और उपादेयका भेद करते हुए सप्तभंगीनयकी अपेक्षासे सत्-असत् आदिका कथन करता है । जिस तरह स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमांसाके द्वारा अपने समयके एकान्तबादोंका निरसन करके अनेकान्तवादकी व्यवस्था की, उसी तरह आजके एकान्तवादोंको निरसन करके हमें भी अनेकान्तबादकी व्यवस्था करनी चाहिये । अनेकान्तदृष्टिसे वस्तुतत्त्वकी समीक्षा करने पर किसी प्रकारका विरोध रहना संभव नहीं है । जहां एकान्तवाद है वहीं विरोध है । जैनधर्मका प्राण अहिंसातत्त्व विद्वद्रन पं. जगन्मोहनलालजी सि. शास्त्री कटनी अहिंसा जैनधर्मका प्राण है । शास्त्रमें और लोकमें यह प्रसिद्ध है कि किसी भी प्राणीको न मारना, न सताना, बंधनमें न डालना, उसे किसी भी प्रकार मानसिक, वाचिक या कायिक पीड़ा न पहुंचाना ही अहिंसा है। मुख्यतः अहिंसाकी आधार शिलापर धर्मके 'साधुधर्म' और 'श्रावकधर्म' ये दो भेद किये गए हैं। हिंसाका निवृत्तिरूप चारित्र ही अहिंसा है । जैनधर्म चारित्रप्रधान धर्म है । यद्यपि चारित्रके पूर्व सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका होना अनिवार्य है तथापि धर्मकी पूर्णता चारित्रके पूर्ण होने पर ही होती है । साधु अपने जीवनको अहिंसाके सांचेमें ढाल लेता है । गृहस्थ अणुव्रतो है। वह यद्यपि एकदेश संयमका अधिकारी है तथापि उसका सर्वाङ्गीण प्रयत्न जीवनको पूर्ण अहिंसक बनानेकी ओर ही रहता है । वह किसी भी प्राणीको मारने, सताने, पीड़ा पहुंचानेका संकल्प नहीं करता, फिर भी अनिवार्य गार्ह स्थिक कार्यों में हिंसा हो जाती है, क्योंकि प्रत्याख्यान कषायका सद्भाव होनेसे उसके पूर्ण चारित्रपरिणामका होना सम्भव नहीं है। ... गृहस्थके लिए अहिंसाका स्वरूप भिन्न हो ऐसी बात नहीं है, किन्तु गृहस्श्रकी अहिंसा कापने सामाजिक, राष्ट्रीय और गार्हस्थिक उत्तरदायित्वको निभाते हुए चलती है, अतः उसे
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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