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जैन लोग प्रकृति और जीवको अलग अलग मानते हैं। उनका बहुत बड़ा सिध्धान्त यह है कि सृष्टिके प्रत्येक पदार्थमें जीव है, केवल मनुष्य और पशु ही सजीव नहीं, वरन् समस्त प्रकारके पौधों, वृक्षों, सागपात, धातु-पाषाण और मिट्टी आदिमें भी जीव है। जैन स्पष्ट रूपसे ईश्वरके अस्तित्वसे इन्कार करते हैं । उनके मतमे अच्छेसे अच्छा, श्रेष्ठसे श्रेष्ठ और त्यागीसे त्यागी मनुष्य ही परमेश्वर है । इस अङ्गमें जैनोंका धर्म यूरोपीय दार्शनिक कमिटीके धर्मसे मिलता है । अमरीका ईसाइयोंका पक सम्प्रदाय भी लगभग इसी सिद्धान्तकी शिक्षा देने लगा है।
जैनोंका सबसे बडा सिध्धान्त अहिंसा है, बौधोंमें मृत पशुके मांसको खानेका निषेध नहीं । ब्रह्मामें, सिंहलमें, चीनमें, जापानमें सारांश यह कि सभी बौध्द देशोमें-बौध्ध लोग मांस खाते हैं।
परन्तु कोई भी जैन मांस नहीं खाता । जैनोंका सबसे बडा नैतिक सिध्धान्त अहिंसा है। इस सिध्धान्तको जैनोने चरमसीमातक पहुंचा दिया है, यहांतक कि कुछ लोगोंकी दृष्टिमें जैन होना परले दर्जेकी कायरता है । परन्तु जैन विद्वान् धर्म-युध्धमें लडनको पाप नहीं समझते और न दण्ड देना वे अपने धर्मके विरुध्ध समझते है।
जैनोंका अचार दर्शन त्यागके अंगमें बहुत ऊंचा है। उसके अनुसार पूरा पूरा काम करना मनुष्योंके लिये असंभव है। इसीलिये जैन धर्मका प्रभाव मनुष्य-प्रकृतिपर ऐसा पडता है कि उससे मनुष्य जीवनक साधारण संग्रामके लिये निर्बल हो जाते हैं। एक और तो जैन साधु उच्च कोटीके संसार-त्यागी हैं, दूसरी ओर जैन जनता क्षुद्र जीवोंकी तो रक्षा करती है परन्तु मनुष्यों के साथ उनका बर्ताव बडी ही निर्दयताका होता. है । शायद असाध्य आचार शास्त्रपर बल देनेका ही यह परिणाम है।