________________
१८
। रतन परोक्षक। चार रत्ती तक दाणा होई । मटर दाणे सम पीला होई ।। ॥ पुरा तनहोए जिला तज जावे । जिलोप्रघट कार यतन बनावे ॥ मुरग और कबूतर होई। आटेसंग खुलावन सोई ॥
पेट चोर कर सो निक सावे । सुंदर आभा चमक दिखावे ॥ ॥ व आद ला मत होई । चौ हिसार पर कीमत होई॥ ॥ विश्वे बात की रत्तो जानो। चौवी रत्ती टंक पछानों ।। ॥ एकनौ सौ टुकडा होई। सोलां वदाम टुकडे के सोई॥ ॥पक टंक परनो विनागे । नीनसो नीस जाइ मन ।। ॥चो हिसार के नगजाली नाहि देख निधामा आंदो॥ ॥ जाति उनम कीमन होई। चो हिसाब बिन उग्न कोई ॥
इति श्री मोती विम! ॥ अथ गोमेद विधानम् ।।
॥दोहरा।। ॥ गोमेद हिमाल होता है। अब देस की ग्वान ।। । सिंधु नदी के तीर पर। पेदा अकि पन्छीन ।।
॥चौपई॥ ॥ गोमेद श्वेत या पोत दिखावे । भागे स्निग्ध पुरातन भावे ।। ॥ कोमल चमक गंभोर पछन । सो उत्तम गोमेद प्रमान ।। ॥ चारो रंगगथ मत मांही । जरदी माइल सुरग्बी स्याही ।। ॥ दसर चिहा सर्व पता। तीसर जरदी स्याही मानी ॥ ।। चौथी छाया कृश्न विचारो। विग्र आदि जह वर्ण समारो॥ । खोटा कांव फटक का जानो। संग चमक लव भेद पछानो। उत्तम सभ सम्व कारक होई। रंग ढंग विन दुख कर सोई।। । वन माहि गण दोप विचारे । त्रासम लोन आदि तज सारे॥
॥दोहा॥ ॥ उत्तम जो गोमेद है। कीमत ताको जान॥ ॥ कंचन दुगना दीजिए। अथवा मुंग प्रमान ।।