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स्वदेशी आन्दोलन और बायकाट ।
स्थान के माल पर हम लोगों ने ऐसा कड़ा कर लगाया है कि उसके व्यापार ही को रोक दिया । १०० के माल पर १० से लेकर २०,३०,५०, १००, ५०० और १००० तक भी कर लगाया गया है ! मैं इस बात का वर्णन नहीं कर सकता कि सूरत. ढाका, मुरशिदाबाद आदि शहरों का व्यापार किस तरह नष्ट किया गया । अंगरेजों के इस व्यवहार को मैं उचित्त और न्याय्य नहीं समझता । मेरी यह समझ है कि एक बलवान् देश ने दूसरे निर्बल देश पर अपनी शक्ति का प्रयोग किया है।"
मैं इस बात को नहीं मानता कि, हिन्दुस्थान कृषिप्रधान देश है । उस देश की कारीगरी प्राचीन समय से प्रसिद्ध है। कोई देश, जहां केवल उचित मार्गोही का अवलम्ब किया जाता था, उसकी बराबरी नहीं कर सकता था। अब उसको कृषिप्रधान देश बनाने का यन करना अन्याय की बात है। मैं इस बात को नहीं मानता, कि इंग्लैन्ड को कच्चा माल देने के लिये हिन्दुस्थान एक कृषिक्षेत्र हो जायगा।"
यह लिखते हमें खेद होता है कि हिन्दुस्थान, इस समय, इंग्लैन्ड को हर किसम का कच्चा माल देने के लिये सचमुच कृषिक्षत्र ही बन गया है !
इस प्रकार, सन् १८५८ ई. तक, इस देश की सब कारीगरी, सब कुशलता और सब व्यापार अंगरेजों ने दुबा दिया । सन् १८५८ ई० में कम्पनी के शासन का अन्त हुआ और इस देश की राजसत्ता इंग्लैन्ड की पलिमेन्ट तथा राजा के हाथ में पाई । उस समय आशा की गई थी कि न्यायी बृटिश-राजनीति से इस देश का कुछ कल्याण होगा । परंतु वह श्राशा पूरी न हुई। अंगरेज-व्यापारियों ने अपनी स्वार्थ-बुद्धि का त्याग नहीं किया। वे लोग अपने व्यापार की उन्नति के लिये अनेक अनुचित
और अन्यायी उपायों की योजना कराने की चेष्टा करतेही रहे । विलायती कपड़े पर हिन्दुस्थान में जो थोड़ा सा कर लिया जाता था वह भी सन् १८९२ ई. में उठा दिया गया, और हिन्दुस्थान से जो कपास विलायत को भेजा जाता था उसका कर माफ हो गया। इतनाही नहीं; सन् १८९६ ई. में हिन्दुस्थान की मिलों में बने हुए सब कपड़ों पर ३३ सैकड़ा कर लगा