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देशोपालम्भ । ... ....... . ............. ... ... .........
[१०] सूई, छड़ी तक, निकृष्ट दियासलाई,
लेता सदैव सुखसे फिरता पराई। निर्लज्ज !सोच मन में कर क्या रहा है ? __ क्यों व्यर्थ ही धन अपार लुटा रहा है ?
[११] लूटा तुझे बहुत बार खुले खजाना, ___ तातार-गोराजनी-नृप ने न माना। पैलूट, आज कल, जो यह हो रही है,
तू सोच देख उससे बढ़ के कहीं है ।
छाई जहां प्रति अपार दरिद्रता है;
प्राचीन-धान्य-धन का न कहीं पता है। सुप्राप्य पेट भर नित्य जहां न दाना;
क्या चाहिए धन वहां पर यों लुटाना?
जो जो पदार्थ तुमको अपने बनाये
हैं प्राप्य, लो तुम बही; न छुवो पराये। लावो न गे वचन जो मन में हमारा, तो सर्वनाश अब दूर नहीं तुम्हारा ॥
[१४] हे देश ! स-प्रण विदेशज वस्तु छोड़ो।
सम्बन्ध सर्व उनसे तुम शीघ्र तोड़ो। मोड़ो तुरन्त उनसे मुँह आज से ही; कल्याण जान अपना इस बात में ही।
[१५] हे दीन-देश! तव निंद्य परावलम्ब
नाशै समूल, सुखकारिणि शक्ति अम्ब। त्यागो तुरन्त विष-तुल्य विदेश-बस्तु
सानन्द पाठक! कहो तुम भी 'तथास्तु'।