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स्वदेशी-आन्दोलन और पायकार।
हा! सभ्य-भाव तुमने जिनको सिखाया,
विद्या-कलादि गुण से जिनका लजाया। देखो, वही अब असभ्य तुम्हें बनाते;
तो भी कभी न कुछ भी तुम चित्त लाते ।।
आत्माभिमान-गुण के प्रतिमात्र त्यागी,
है देश! क्यों न तुम डूब मरे अभागी ? मात्मावलम्ब जिसको कुछ भी न प्यारा, देता उस न जगदीश्वर भी सहारा ।।
[६]
दिव्याति-दिव्य तव रब, अहो, कहां हैं ?
शोभा-समूह पट-पुख, कहा, कहां हैं ? खोया सभी कुछ; न, हाय, तुम्हें हया है !
हे देश : शष तुम में रह क्या गया है ?
निःसार होकर पड़े तुम जी रहे हो, __ पानी सदैव पर के कर पी रहे हो । अन्यावलम्ब-सम और न पाप भारी बोलो, गई विमल बुद्धि कहां तुम्हारी ?
[८] हे प्रात्मशत्रु परदेशज वस्तु त्यागी; __सौ कोस दूर उससे सब काल भागो। जागा, चहो यदि अभी अपनी भलाई, क्यों आंख मूंद करते निज-नाश भाई ?
[ ] क्यों हैं तुझे पट विदेशज, देश, भाये ?
क्यों है तदर्थ फिरता मुँह नित्य बाये ? तूने किया न मन में कुछ भी विचार,
धिकार भारत! तुझे शत-कोटे कार