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________________ जैनधर्मपर व्याख्यान. विद्वानोंसे ऐसे बुरे सलूककी आशा कभी नहीं करते थे। हम यह कभी नहीं समझते थे कि विद्वान ऐसे धर्मको हानि पहुचायेंगे जो कि सबके लिये दयालू है परन्तु इस दुष्टसंसारमें नेकी बहुधा विपत्तिमें होती है । महाशयो! मैं अपने व्याख्यानके इस भागको पूरा करनेसे पहले एकबार फिर भी पुराने भारतवर्षका पुराने भारतवर्षकी तरफ लौटता हूं। मैं आपको इसषातका विश्वास विशेष वर्णन दिलाता हूं कि प्राचीन कालमें इस श्रेष्ठ देशमें केवल ऐसे ही मनुष्य नहीं थे जो कहते थे कि "स्वर्गकामो यजेत्" अर्थ-जो मनुष्य स्वर्गमें जाना चाहता है उसको यज्ञ करना चाहिये ।। परन्तु ऐसे भी बहुत धर्म व सम्प्रदाय थे जो इन यनोंका कुछ भी गौरख नहीं करते थे और इनको बुरा समझते थे। शोककी बात है कि वे सव सम्प्रदाय हमारे समयतक विद्यमान नहीं रहे हैं और उनमसे बहुतमे हमेशाकलिये नष्ट होगये हैं परन्तु अब भी कुछ ऐसे हैं जिनके तत्त्वशास्त्र हमारे साथ लगे हैं और मैं ख्याल करता हूं कि ये सम्प्रदाय इस बातको सिद्ध करनेकेलिये काफी है कि प्राचीन समयमें भारतवर्षके वैदिक यज्ञ और यज्ञ जीवहिमा ही स्वर्ग और मुक्तिके कारण नहीं थे, बल्कि लोग इन्ही मनो. रथोंको सिद्ध करनेकेलिये हिंसासे विरुद्ध कारणों को भी काममें लाते थे और जब कि एक मतवाले कहतेथे कि हम संसाररूपी समुद्रको हिसासे पारकरसंक्त हैं दुसरे मतवाले कहते थे कि सिर्फ आहेसा ही निर्वाणका ( मोक्षका ) कारण है ॥ प्रथम ही प्राचीन योगियोंके तत्वशास्त्रको देखियं जिसको पतंजलि ऋषिने योगशास्त्र. हमारे लिये तरतीबवार संग्रह किया है । हसारे पास जैनाचार्य हेमचन्द्रका (जो हेमचन्द्रकोषके एक प्रसिद्ध ग्रंथकर्ता हैं) बनाया हुआ योगशास्त्र भी है परन्तु कि पतंजलिके योगसूत्र अच्छीतरहसे मालूम हैं हमें उनको पढ़ना चाहिये और देखना चाहिये कि उनमें अविनाशी सुखकी प्राप्तिकेलिय वैदिकयज्ञोंको सहायक बताया है या नहीं। महाशयो ! पतंजलिके सूत्रोंमें यह कहीं भी नहीं लिखा कि वैदिकयज्ञ किसीप्रकारकी सहायता देते हैं बल्कि इसके विपरीति पाद २ सूत्र ३० में 'यम' का कथन किया है और हिंसा सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहको उसमें सामिल किया है: अहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ॥ ३० ॥ टीका-तत्र माणवियोगप्रयोजनव्यापारो हिंसा सा च सर्वानहेतुः तदभावःअहिंसा। हिंसायाः सर्वकालमेव परिहार्यत्वात प्रथमं तदभावरूपाया हिंसाया निर्देशः। सत्यं वा
SR No.011027
Book TitleLecture On Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLala Banarasidas
PublisherAnuvrat Samiti
Publication Year1902
Total Pages391
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size14 MB
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