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जैनधर्मपर व्याख्यान.
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नं०१४ (म A) १ सिद्धम् ॥ कोट्टियातो गणातो ब्रह्मदासिकात (1) कुलातो २ उ (चे) नागरितो शाखातो-रिनातोस (भ) ( गातो) अ (र्य(ब B) १ जेष्ठ हस्ति (स्प) शि (प्या) अर्य महलोभर्य जेष्ठ ( हस्तिस) (शिशो) अर्य ( गा) ढक () (त) स्य शिशिनि ( अर्य) २ शामयेनिवर्तना ड (स)-प्रतिमावर्मयेधीतु (गुल्हा ) ये जय दासस्य कुटुंबिनिये दानं
अर्थ-जय ! पूज्यजेष्ठहस्ति (जेष्ठ हस्तिन ) जो कोत्तियगण, ब्रह्मदासिककुल, उच्च नागरीशाखा, और आरिनसंभोगमें था उसका शिष्य माननीय महल था । आदरके योग्य जेष्ट हस्ति (जेष्ठ हस्तिन ) का शिष्य मान्य गाधक था उसकी चेली पूजनीय सामाकी प्रार्थनापर वर्माकी पुत्री और जयदासकी स्त्री गुलहाने उपम ( ऋषभ ) की मूर्तिकी प्रतिष्ठा कराई।
(पृष्ठ ३८९ जिल्द पहली )
नं० २८ ( अ A )--भगवतो उसमस वारणेगणे नाडिके कुले सा (यं) (ब B ) ढुकसवायकसमिसिनिएलादिनाएनि
अर्थ-भगवान उषम (ऋषभ ) की जय हो मादिताकी प्रार्थनापर जो वारणगणके उपदेश, नांदिककूल और शाखाके
धुककी चेलीथी
(पृष्ठ २७६--२८७ जिल्द २री) अब आप देखसक्ते हैं कि करीब दोहजार वर्षके हुये कि ऋषभ प्रथम जैन तीर्थकर समझे जाते थे। अब महावीर और पार्श्वनाथ कब हुये महावीर स्वामीने संवत् विक्रमसे ४७० वर्ष पहले मोक्ष पाया और पार्श्वनाथ का निवार्ण इससे २५० वर्ष पहले हुआ। पस शिलालेख जो इन दो तीर्थकरोंके चन्द( कई ) सौ वर्ष पीछे लिखेगये थे, इसबातका मुबूत देते हैं कि ऋषभ जैन तीर्थकर थे । यदि महावीर और पार्श्वनाथ जैनमतके चलाने वाले होते तो मनुष्य जिनको दोहजार वर्ष हो चुके हैं ऋषभ की मूर्तियां क्यों बनाते ॥ ___ महाभयो ? आज दोपहरके वक्त मुझे आपके सामने इस बातके कहनेमें बड़ा खेद होता है कि लोगोंने हमारे पवित्रधर्मको बहुत ही तुच्छ समझ रक्खा है कई लेखकोंने इसको छठीसदीमें निकला हुमा समझा है। कई इसको बौद्धमतकी शाखा बतलाते हैं कइयोंने इसको चार्वाक मतके साथ मिला दिया है कई महावीरको इसका प्रचलित करनेवाला बतलाते हैं और कइयोंकी राय है कि पार्श्वनाथ इसका चलानेवाला था. हम