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जैनधर्मपर व्याख्यान.
धर्म विषयमें उनको चाहिये कि वे हमारे शास्त्रोंसे काम लें न कि वे अनुमान ही पर विश्वास कर बैठें ॥
आप जानते हैं कि धर्म, धर्म ही हैं. यह मनुष्यको उसके जीवन से भी अधिक प्यारा होता है और मेरी तुच्छ रायमें विद्वानोंको धर्मका विषय तुच्छ नहीं समझना चाहिये क्यों कि उनका लेख कानून होता हैं. और उनकी रायप्रमाण होती हैं इसलिये उनको धर्मके विषयमें अपनी राय देनेमें जल्दी नहीं करनी चाहिये वल्कि दूसरे के शास्त्रोंपर ध्यान देना चाहिये और उनके भावोंका आदर करना चाहिये ||
महाशय ! इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि केवल हिन्दू और जैनशास्त्रोंकी मथुरा के शिला कथाओं के अनुसार ही हम ऋषभको जैनमतका चलानेवाला नह लेख. बतलाते बल्कि इन कथाओंके पुष्ट करनेमें और भी पक्का सुबूत हैं जो डाक्टर फुहरर (Fuhrer ) ने मथुरा में खोज किया था और जो करीब दोहजार वर्षका है । आप जानते हैं कि प्रोफेसर बहलर ( Buller ) ने एक किताब छापी हैं जिसका नाम एपीग्रेफिया इन्डिका (pigraphia Indica) हैं इस किताबकी पहली और दूसरी जिल्द में जैनियोंक बहुत से शिलालेख प्रकाशित किये हैं । यह लेख दोहजार वर्षके पुराने हैं और इनपर इन्डोसिथियन ( Indo-Sythin) राजा कनिया हुवक और वसुदेवका संवत् हैं । इनसे हमको मालूम होता है कि गृहस्थी जैनी ऋषभकी मूर्तियां बनाते थे. दृष्टांत के लिये निम्न लिखित शिलालेख देखो --
नं० ८
( अ ) सिद्धम्म (हा ) रा ( ज ) स्य र ( जा ) तिराजस्य देवपुत्रस्य हुवकस्य स ४० (६० ) हेमंतमासे ४दि १० एतस्यां वयां कोदिये गणे स्थानिकी कुल अटप ( वेरि ) याण शाखायावाचकस्यार्यवृद्धहस्ति ( स्प ) ( ब B ) शिष्यस्य गणिस्य आय्र्यख (र्ण ) स्प पुय्यम ( न )
( स्प ) (व) तकस्य ( क ) - सकस्य कुटुम्बिनीदत्ताये -- नधम्म महाभोगताय प्रीयताम्भगवानृषभश्रीः अर्थ - जय ! प्रसिद्ध राजा और महाराजाधिराज देवपुत्र हुवस्कके सम्बत ४० (६० १ ) में हेमंत (शीतकाल ) के चतुर्थमासकी दशमीको इस ऊपर लिखीहुई मिति को यह उत्कृष्ट दान बतनिवासी, का पासकको स्त्री दत्ताने पूज्य वृद्धहस्ति आचार्य जो कोत्तियगण, शानिकीयकुल, और आर्य वेरियाओं ( आर्यवज्र के अनुयायी ) की शाखा में से था, उसके शिष्य माननीयस्वरत्न गणिनकी प्रार्थनापर किया था भगवान तेजस्वी ऋषभ प्रसन्न हो ( पृष्ठ ३८६ दिल्द पहली )