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जैनधर्मपर व्याख्यान.
मनसार्यथार्थत्वं । स्तेयं परस्वापहरणं तदभावः 'अस्तेयं । बह्मचर्य उपस्थसंपमः। भपरिग्रहःभोगसाधनानामस्वीकरणं । त एते भासादयः पंचयमशब्दवाच्या योगाइत्वेन निर्दिष्टाः ॥ ३०॥
(इति राजमातंडः) अर्थ भाषा-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहका नाम 'यम' अर्थात् बंधन हैं। जिस काममें किसी जीवके प्राणोंका नाश हो वह हिंसा है. यह सब पापोंकी मूल है. इसका न होना अहिंसा कहलाती है । चूंकि हिंसाका सबकालमें त्याग करना चाहिये इस कारण उसके अभावरूप अहिंसाका सबसे पहले कथन किया है । यथार्थ बातको कहना और मनमें शोचना सत्य कहलाता है। पराये धनका हरलेना स्तेय अर्थात् चोरी है उसका अभाव अस्तेय है। ब्रह्मचर्य स्त्रीसे भोगकरनेकी इच्छाको रोकनेका नाम है। अपरिग्रह विषयभोगके पदार्थोंको न रखनेको कहते हैं। इन पांच ( अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) को 'यम' शब्दसे जाहिर किया है. इस यमको योगका सहायक बतलाया है ।
३१ वें सत्रमें इन पांचो बंधनोंको जिनका नाम 'यम' हे महाव्रत कहा है यदि मनकी समस्त दशाओंमें उनका ध्यान रखा जाय:---
एते जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौममहावतम् ॥ ३१ ॥
टीका- 'जाति' ब्राम्हणत्वादिः । 'देशः तीर्थादिः । 'कालः ' चतुर्दश्यादिः 'समयः ' ब्राह्मणप्रयोजनादिः । एतैश्चतुर्भिः 'अनवच्छिन्नाः' पूर्वोक्ता आहिसा. दयो यमाः सर्वासु तित्यादिषु चित्तभूमिषु भवाः 'महावत' इत्युच्यते । तद् यथा बाह्मणं न इनिण्यामि, तीर्थे कंचन न हनिष्यामि, चतुर्दश्यां न हनिष्यामि, देवब्राह्मणाद्यर्थव्यतिरेकेण हनिष्यामीत्येवं चतुर्विधावच्छेदयतिरेकेण कंचित क्वचित् कदाचित् कस्मिंश्चिदप्यर्थे न हनिष्यामीत्यवच्छिन्नाः एवं सत्यादिपु यथायोग योज्यं । इत्थमनियतीभूताः सामान्ये नैव प्रवृत्ताः महाव्रतमित्युच्यते, न पुनः परिच्छिन्नावधारण॥३१॥
[इति राजमार्तण्डः] अर्थ भाषा-ये सर्व साधारणकलिये जाति, देश, काल और समयकी अपेक्षा (लिहान) विना बड़े तप हैं. जाति आदि इन चार सूरतोंके भेदसे रहित चित्तवृत्तिकी समस्त दशा
और हालतोंमें इनका आदेश है अर्थात् इसका यह मतलब नहीं है कि मैं ब्राह्मणका नहीं वध करूंगा बल्कि इसका यह मतलब है कि मैं किसी कारण भी किसी जगह में और किसी समयमें भी किसी भी जीवकी हिंसा नहीं करूंगा|इसीप्रकार और यमोंका भी अर्थ करना चाहिये । इसतरह जब इन माचरणोंका विनाभेदके सबकेलिये व्यवहार