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________________ Material for Research 1305 सिधि श्री गनेसाय नमः । श्री सरुसते नमः । श्री परमगुरभे नमः । श्री जानुको बलमाइ नमः । अथ बनक-प्रिया लिखते। गुर गर्न कह सुखदेव, भी सरसुती बतायो भेव । बनिका प्रिया पनिक वंचियो, दिया उजिहार हाथ के यो ॥१॥ गोला पूरब पच विस, वारि बिहारीदास । तिनके सुत सुखदेव कहि, धनिक प्रिया प्रकाश ॥२॥ वनिकनि को वनिक प्रिया, भडसारि को हेत । मादि अंत श्रोता सुनो, मतो मत्र पो देत ॥३॥ माह मास कातक करे सवत् सोधे साठ । मते याह के जो चले, कबहूँ नै पावे घाट ॥४॥ फागुन देव दल जु पाइयो, मकल बस्तु सुरपति चाइयो । चार मास इहि रेहै प्राइ, पुन पताल सुता हो जाइ ।।५।। The instructions given to the businessmen ere as follows -- प्राधौ ऊपर प्राधौ तर, माधौ परहथ प्राधौ धरै । प्रेसो साहु साहुपति कर, देम विर्वजन मूख नहिं मरै ।।१४।। हसि कुल्हरिया पास हर खुरपा कहत किसान । पस पछी वरहाम में, हाथ न हथै किसान ॥ हाथ न हये किसान, ताहि कौद नहि दीजै । असुभ कर्म जेह करे, मो कागद लिख लोज ।। सपन ल दरवार बैठि ले विलसे रसिया । बहुत विधुचे हम सुनं सगति के हसिया ।।१८५।। In the end, the poet gave the date of completion of the work and before that he finished the work with his humble request - मथ कवि की प्रार्थना विचारुमत्री मती न लाइयो, जौ मतु मानै कोई । बारह मास सुभ दसा अमुम पलनी होई । देखी सुनी सौ मै कही, वाचि सोख सुन लेक । ऐता फ कविता कहै, करै करमनु यारी होऊ ।।३१३।। जिहि जागा जैसो कही, तैसी कही न होत । तो पहि कहिये करमगति, दोस न दो मोह ॥३१॥
SR No.011017
Book TitleJaina Granth Bhandars in Rajasthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1967
Total Pages394
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size13 MB
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