________________
. एकादश अध्याय
५- पौषध में आहार- पानी, शरीर सेवा, मैथुन, सावद्य प्रवृत्ति एवं व्यापार आदि की कामना करना ।
'उक्त व्रत से आत्मगुणों को पोषण मिलता है। जीवन में थाध्यात्मिक विकास करने को शिक्षा मिलती है। इस व्रत को अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णिमा ऐसे पक्ष में तीन वार और महीने में ६ वार स्वीकार करना चाहिए । जो श्रावक पोषध नहीं कर सकता है, उसे ६ दिन दया करनी चाहिए ।
अतिथि संविभाग
. ५.३.५
·
जिसके आने की कोई तिथि नारोख या दिन निश्चित न हो. तथा जो विना सूचना दिए, अचानक द्वार पर आ खड़ा हो, उसे. ग्रतिथि कहते हैं । ऐसे व्यक्ति का आदर-सत्कार करने के लिए भोजन आदि पदार्थों में संविभाग करना अथवा उसे आवश्यकतानुसार आहार, वस्त्र- पात्र श्रादि देना अतिथि संविभाग व्रत कहलाता है । या यों कहिए अध्यात्म साधना के पथ पर गतिशील संयमी साधु-सन्तों को उनके नियम के अनुकूल प्राहार, वस्त्र, पात्र, मकान आदि देना तथा दान का प्रत्यक्ष संयोग न मिलने पर भी दान देने की भावना बनाए रखना भी अतिथि संविभाग व्रत कहलाता है ।
पांच अणुव्रत स्वीकार करते समय श्रावक हिंसा, असत्य आदि दोषों का मोटे-स्थूल रूप में त्याग कर देता है । तीन गुणव्रत ग्रहण करके वह अपनी मर्यादित आवश्यकताओं को और सीमित कर लेता है । तीन शिक्षा व्रत स्वीकार करके श्राध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ता है । विषमता के उजड़ मार्ग से हटकर समता के सरल एवं सीधे मार्ग पर गति करने का प्रयत्न करता है । सावद्य प्रवृत्ति से दूर हट कर त्याग एवं तप की श्चोर क़दम बढ़ाता है। चौथे शिक्षाव्रत में श्रावक
.
2
"