________________
प्रश्नों के उत्तर
अपने मर्यादित परिग्रह में से प्रति दिन यथाशक्ति कुछ धन शुभ कार्य में खर्च करके अपनी ममता और प्रासक्ति को कम करता है। और आसक्ति जितनी कम होती है, पाप एवं प्रारम्भ भी उतना ही घटता जाता है। अतः यह बारहवां व्रत प्रासक्ति को कम करके अपने धन, को शुभ कार्य में व्यय करने की शिक्षा देता है।
श्राचार्यों ने दान को अत्यधिक महत्त्व दिया है । संसार रूप गम्भीर एवं गहन अन्धकारमय कूप से बाहर निकलने का दान से बढ़ कर ओर कोई साधन नहीं है । "नेत्तारो भवकूपतोऽपि सुदृढ़ दानावत्तम्वात् परः।" दान को इतनो प्रतिष्ठा होने तथा शास्त्रों में जगह-जगह इसका उल्लेख मिलने पर भी कुछ लोग साधु से इतर को दान देने में पाप मानते हैं । यह उनका अज्ञान है, ऐसा समझना चाहिए। यदि
दान देने में पाप होता तो केशी श्रमण से बोव पाकर धर्म एवं अध्यात्म.. साधना की ओर बढ़ने वाला परदेशी राजा अपने राज्य का चौथा
भांग दीन-दुःखी प्राणियों की सहायता के लिए क्यों निकालता ? . परन्तु उसने केशी श्रमण के सामने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं अपने . राज्य का चौथा हिस्सा असहायों को सहयोग देने में लगाऊंगा । इससे . . स्पष्ट हो जाता है कि दान देना पाप नहीं, धर्म एवं पुण्य है । इस व्रत
को निर्दोष परिपालन करने के लिए श्रावक को पांच बातों से सदा .. बच कर रहना चाहिए।
१-अचित्त पदार्थ के ऊपर सचित्त पदार्थ रखना। - २-सचित्त वस्तु पर अचित्त वस्तु को रखना। . . . . .३-भोजन के समय का अतिक्रम करके प्राहारादि देने की भावना.. .. भाना या आहार के लिए आमंत्रित करना।.... . .... ४-दान देना पड़े इस भावना से अपनी वस्तु दूसरे को दे देना।